एक दिन
बातों-बातों में
फूल और तितली झगड़ पड़े
तमाशबीन भाँपने लगे माजरा खड़े-खड़े
कोमल कुसुम की नैसर्गिक सुषमा में समाया माधुर्य नयनाभिराम
रंग, ख़ुशबू , मकरन्द की ख़ातिर मधुमक्खी, तितली, भँवरे करते विश्राम
फूल आत्ममुग्ध हुआ कहते-कहते
तितली खिल्ली उड़ाने में हुई मशग़ूल
यारी की मान-मर्यादा, लिहाज़ गयी भूल
बोली इतराकर-
पँखुड़ियाँ नज़ाकत से परे हुईं
धुऐं के कण आसमान से उतरकर गिरे हैं इन पर
ओस की बूँदों ने चिकनी कालख बनने में मदद की है
जड़ों को मिला ज़हरीला दूषित पानी
सुगंध की तासीर बदल रहा है
पराग आकर्षणविहीन हो रहा है......
आग में घी डालते हुए
तितली ने आगे कहा-
मैं तो स्वेच्छाचारी हूँ.....
तुम्हारी तरह एक ठौर की वासी नहीं!
फूल का बदन लरज़ने लगा
ग़ुस्से से भरकर बोला -
आधुनिक आदमियों की बस्ती में रहता हूँ
मन मारकर क्या-क्या नहीं सहता हूँ
काल-चक्र की अपनी गति है
मन मारकर क्या-क्या नहीं सहता हूँ
काल-चक्र की अपनी गति है
स्थिर रहना मेरी नियति है
जाओ जंगली ज़मीन पर उगे ड्रोसेरा से मिलो!
तितली पता लेकर उड़ गयी
क्रोधाग्नि का ज्वार थमा तो
फूल आत्मग्लानि से लबरेज़ हुआ
मिलने आये भँवरे को
मनाने भेजा तितली के पीछे
अफ़सोस!
ड्रोसेरा पर रीझकर
तितली ने गँवाया अपना अस्तित्व
पश्चाताप की अग्नि में झुलसकर
विकट दारुण परिस्थिति में फँसकर
बिखर गया दुखियारा फूल भी
याद करते-करते हमनवा
बिखर गया दुखियारा फूल भी
याद करते-करते हमनवा
उसके अवशेष ले गयी हवा
शनै-शनै उड़ाकर जंगल की ओर....!
पसर गया सन्नाटा-सा सघन सन्नाटा चहुँओर.....!!
पसर गया सन्नाटा-सा सघन सन्नाटा चहुँओर.....!!
© रवीन्द्र सिंह यादव
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