हमारे हिस्से में
जो लिखा था
सफ़हा-सफ़हा से
वे हर्फ़-हर्फ़ सारे
दीमक चाट गयी
डगमगाया है
काग़ज़ से
विश्वास हमारा
पत्थर पर लिखेंगे
इबारत नई
सिकुड़ती जा रही
सब्र की गुँजाइश
बिखरने के
अनचाहे सिलसिले हैं
इंसाफ़ की आवाज़
कहाँ गुम है ?
किसने आज़ाद हवा के
लब सिले हैं?
© रवीन्द्र सिंह यादव
शब्दार्थ / WORD MEANINGS
सफ़हा = पृष्ठ,पन्ना / PAGE
हर्फ़ = शब्द / WORD
लब = होंठ / LIP(S)
लब = होंठ / LIP(S)
जी नमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार(८-०१-२०२०) को "जली बाती खिले सपने"(चर्चा अंक - ३५७४) पर भी होगी।
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
आप भी सादर आमंत्रित है
….
अनीता सैनी
बहुत सुंदर सारगर्भित।
जवाब देंहटाएंवो तुम्हारे लब सिलवा देंगे, तुम्हें बेड़ियाँ पहना कर जेल में डाल देंगे और अगर तुम फिर भी न माने तो फिर तुम्हारा एनकाउंटर करवा दिया जाएगा.
जवाब देंहटाएंकोई आख़िरी ख्वाहिश?
आदरणीय रवींद्र जी सवर्प्रथम आपको इस सुन्दर और यथार्थपरक रचना हेतु साधुवाद ! आपकी लेखनी सदैव आमजन के हृदय में न्याय का बिगुल फूँकती है। जहाँ एक तरफ इस काव्य संसार में लोग प्रेम की शहनाइयां बजा रहे हैं वहीं आप जनजागरण की मशाल जला रहे हैं। अब क्या कहूँ कलम के सिपाही अब रहे नहीं, चाटुकारों से कोई उम्मीद करना व्यर्थ है ! कविता कोई खिलौना नहीं जिसे मनोरंजन हेतु केवल लिखा जाय और राजनीतिक पार्टियों की वाह-वाही में अर्पित कर दिया जाय। कविता मानव हृदय में उठने वाली एक क्रांति का नाम है न कि किसी राजनीतिक पार्टी का चुनावी मैनिफेस्टो जिसे जनता को दिखाना है और उसके लाभ को चुनावी सभा में भजाना है। सादर 'एकलव्य'
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