सरकारी फ़ाइल में
रहती है एक रेखा,
जिनके बीच खींची गई है
क्या आपने देखा...?
सुनाने संवेदनाविहीन सत्ता के केंद्र को
अपनी जाएज़ आवाज़
चलते हैं किसान पैदल 180 किलोमीटर,
चलते-चलते घिस जाती हैं चप्पलें
डामर की सड़क बन जाती है हीटर।
सत्ता के गलियारों तक आते-आते
घिसकर टूट जाती हैं चप्पलें
घर्षण से तलवों में फूट पड़ते हैं फफकते फफोले
सूज जाते हैं फटी बिवाइयों से भरे पावन पाँव,
रिसते हैं रह-रहकर छलछलाए छाले
मायानगरी की दहलीज़ पर
जहाँ उजड़ चुके हैं संवेदना के गाँव।
छह दिवस पथिक पैदल चले
पचास हज़ार ग़रीब किसान,
हौसला हो या दूसरों की परवाह
आंदोलन में शांति और अनुशासन के
छोड़ गए गहरे निशान।
हमने देखा उम्मीद मरी नहीं है
मुम्बईकर निकले घरों से
खाना-पानी और चप्पलें लेकर
लोग सिर्फ़ सेलिब्रिटीज़ को ही टीवी पर देखना चाहते हैं
तोड़ा भरम राष्ट्रीय मीडिया को नसीहत देकर।
सोई सरकार की नींद खुली
सभी माँगें स्वीकार कर लीं
पीड़ा के पाँवों पर मरहम लगाया
बेबस हो विशेष ट्रेन से
किसानों को घर भिजवाया।
© रवीन्द्र सिंह यादव
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (06-01-2021) को "अभी बहुत कुछ सिखायेगी तुझे जिंदगी" (चर्चा अंक-3938) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
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बहुत ही सामयिक परावर्तन - - सशक्त व प्रभावशाली लेखन - - नमन सह।
जवाब देंहटाएंसमसामयिक परिदृश्य पर दमदार लेख हेतु साधुवाद 🙏💐🙏
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