शनिवार, 31 मार्च 2018

क्रोध


मन में 

दशकों से 

दबे हुए 

क्रोध को 

आजकल 

सडकों पर 

भीड़ बनकर 

चाहतों के शहर 

ख़्वाबों की गलियाँ 

विध्वंस करते हुए 

निकाला जा रहा है।  

मनुष्य को ईश्वर ने 

औरों की पीड़ा महसूसने 

ज़मीर को जाग्रत रखने..... 

दिल दिया 

समझने सांसारिक-खेल  

जीवन को बेहतर बनाने 

दिमाग़ भी दे दिया 

फिर क्यों रख देता है 

मनुष्य 

अपना दिल-ओ-दिमाग़ 

गिरवी 

किसी धूर्त की चौखट पर.....?  

और पलभर में 

तत्पर हो जाता है 

अराजक दंगाई बनने। 

आम लोग होते हैं तबाह

किसी की होती है पौ-बारह   

घायलों, पीड़ितों की चीत्कार 

दिल की सूनी कोठरी में 

कभी तो सुनाई देगी 

तब तक 

बहुत देर हो चुकी होगी......!

# रवीन्द्र सिंह यादव 

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

आपकी टिप्पणी का स्वागत है.

विशिष्ट पोस्ट

अभिभूत

बालू की भीत बनाने वालो  अब मिट्टी की दीवार बना लो संकट संमुख देख  उन्मुख हो  संघर्ष से विमुख हो गए हो  अभिभूत शिथिल काया ले  निर्मल नीरव निर...