बहुरुपिया बौद्धिक अहंकार
हमें कहाँ ले आया है?
बेसुरा छलिया राग
सुरीले सपनों का बसंती गाँव
कब दे पाया है ?
हमें कहाँ ले आया है?
बेसुरा छलिया राग
सुरीले सपनों का बसंती गाँव
कब दे पाया है ?
सृजनमय विनिमय से
तिरोहित हमारा मानस
संकीर्णता की
अभेद्य परिधि का व्यास
विस्तृत कर गया है
ईमानदारी के
संवर्धन हेतु
न्यास बने
दीमक बन
सरेआम
भ्रष्टाचार चाट गया है
बहुत भारी हो चली है
गुनाह में लज़्ज़त की तलाश
उग आयी नाग-फनी
कभी लुभाते थे
जहाँ गहरे सुर्ख़ पलाश
विश्वबंधुत्व के बीज
उगने से पहले ही
सड़-गल रहे हैं
धौंस-डपट
थानेदारी के
आक्रामक बर्बर
विचार पल रहे हैं
चिंतन का केन्द्र-बिंदु
अब सिर्फ़
दूसरे के खलीते से
पैसा निकालकर
अपनी तिजोरी में
कैसे पहुँचे,
पर टिक गया है
आदमी का ज़मीर
चौराहे पर बिक गया है
संवाद की गरिमा
अब आयात करनी होगी
नयी पीढ़ी में
संस्कार-मर्यादा की
चिरंजीवी चिप लगानी होगी
शीशे पर जमी है
धूल ही धूल
पारदर्शी
पानी भी न रहा
शक्ल अब
एक-दूसरे की
आँखों में देखो
शर्म होगी तो
ढक लेंगीं पलकें
पुतलियों को
आदमी की बेशर्मी का
कोई सानी भी न रहा।
#रवीन्द्र सिंह यादव
तिरोहित हमारा मानस
संकीर्णता की
अभेद्य परिधि का व्यास
विस्तृत कर गया है
ईमानदारी के
संवर्धन हेतु
न्यास बने
दीमक बन
सरेआम
भ्रष्टाचार चाट गया है
बहुत भारी हो चली है
गुनाह में लज़्ज़त की तलाश
उग आयी नाग-फनी
कभी लुभाते थे
जहाँ गहरे सुर्ख़ पलाश
विश्वबंधुत्व के बीज
उगने से पहले ही
सड़-गल रहे हैं
धौंस-डपट
थानेदारी के
आक्रामक बर्बर
विचार पल रहे हैं
चिंतन का केन्द्र-बिंदु
अब सिर्फ़
दूसरे के खलीते से
पैसा निकालकर
अपनी तिजोरी में
कैसे पहुँचे,
पर टिक गया है
आदमी का ज़मीर
चौराहे पर बिक गया है
संवाद की गरिमा
अब आयात करनी होगी
नयी पीढ़ी में
संस्कार-मर्यादा की
चिरंजीवी चिप लगानी होगी
शीशे पर जमी है
धूल ही धूल
पारदर्शी
पानी भी न रहा
शक्ल अब
एक-दूसरे की
आँखों में देखो
शर्म होगी तो
ढक लेंगीं पलकें
पुतलियों को
आदमी की बेशर्मी का
कोई सानी भी न रहा।
#रवीन्द्र सिंह यादव
सुंदर और मन उड़ेलने वाली कृति!
जवाब देंहटाएंपूंजीवाद ने इंसान को हैवान बना दिया है!!
हमें संघर्ष करना ही होगा!!
आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज शुक्रवार 12 जुलाई 2019 को साझा की गई है......... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंबहुत भारी हो चली है
जवाब देंहटाएंगुनाह में लज़्ज़त की तलाश
उग आयी नाग-फनी
कभी लुभाते थे
जहाँ गहरे सुर्ख़ पलाश
क्या कहने...
गुनाह में लज़्ज़त ही तो आने लगी है कि गुनाह गुनाह नहीं लगता अब..
बहुत खूबसूरत रचना
सादर
समसामयिक विसंगतियों को उघेरती रचना।
जवाब देंहटाएंबेहद सारगर्भित,समाज के प्रति गहन चिंतनशीलता को प्रतिबिंबित करती आपकी समसामयिक रचना के भाव उत्कृष्ट हैं।
जवाब देंहटाएंसराहनीय सृजन के लिए बधाई रवींद्र जी।
वाह!!रविन्द्र जी ,क्या खूब !!शीशे पर जमी है धूल ही धूल , पारदर्शी पानी भी न रहा ... वाह!!
जवाब देंहटाएंशीशे पर जमी है
जवाब देंहटाएंधूल ही धूल
पारदर्शी
पानी भी न रहा
शक्ल अब
एक-दूसरे की
आँखों में देखो
शर्म होगी तो
ढक लेंगीं पलकें
पुतलियों को
आदमी की बेशर्मी का
कोई सानी भी न रहा। ...बेहतरीन सृजन आदरणीय
प्रणाम
सादर
सामयिक परिवेश पर कटाक्ष करती प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंचिंतन का केन्द्र-बिंदु
जवाब देंहटाएंअब सिर्फ़
दूसरे के खलीते से
पैसा निकालकर
अपनी तिजोरी में
कैसे पहुँचे,
पर टिक गया है
आदमी का ज़मीर
चौराहे पर बिक गया है.. बेहतरीन रचना आदरणीय