शुक्रवार, 14 फ़रवरी 2020

एक आवारा बदली


भुरभुरी भूमि पर उगे 
किरदार-से कँटीले कैक्टस
निर्जन परिवेश पर 
उकताकर कुंठित नहीं होते
ये भी सजा लेते हैं 
अपने तन पर काँटों संग फूल   
सुदूर पर्वतांचल में 
एक मोहक महक से महकती 
स्वागतातुर वादी  
रंग-विरंगे सुकोमल सुमनों से सजीं सुरम्य क्यारियाँ 
पुकारतीं तितलियों को 
कुसुम-दलों पर छिटकीं धारियाँ 
मधुमक्खियाँ मधुर पराग पीने पधारतीं 
एक आवारा बदली 
बरसने से पहले 
निहारती दोनों दृश्य।  

© रवीन्द्र सिंह यादव  
   

8 टिप्‍पणियां:


  1. जी नमस्ते,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा शनिवार (२५-०१-२०२०) को शब्द-सृजन-८ 'पराग' (चर्चा अंक-३६१२) पर भी होगी
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का
    महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    आप भी सादर आमंत्रित है
    ….
    अनीता सैनी

    जवाब देंहटाएं
  2. बहुत सुन्दर...
    वाह!!!
    सुदूर पर्वतांचल में
    एक मोहक महक से महकती
    स्वागतातुर वादी
    रंग-विरंगे सुकोमल सुमनों से सजीं सुरम्य क्यारियाँ
    पुकारतीं तितलियों को
    कुसुम-दलों पर छिटकीं धारियाँ
    मधुमक्खियाँ मधुर पराग पीने पधारतीं
    एक आवारा बदली
    खूबसूरत सृजन।

    जवाब देंहटाएं
  3. वाह! आदरणीय सर बेहद खूबसूरत सृजन।
    सादर प्रणाम 🙏

    जवाब देंहटाएं
  4. बहुत ही सुंदर रचना सर ,सादर नमस्कार

    जवाब देंहटाएं
  5. बहुत सुंदर रचना! विपरीत परिस्थितियों में कैक्टस कांटों के साथ रह कर भी प्रकृति के कलापों में सहयोगी रहता है ।
    सुंदर भाव।

    जवाब देंहटाएं
  6. कैक्टस, कुंठा और फूल। बहुत-बहुत सुंदर बिंब बनाती रचना आदरणीय रवीन्द्र जी। बहुत-बहुत शुभकामनाएँ ।

    जवाब देंहटाएं
  7. वाह!!रविन्द्र जी ,बहुत खूबसूरत सृजन।

    जवाब देंहटाएं

आपकी टिप्पणी का स्वागत है.

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