दीवार उठती है
बाँटती है
आचार-विचार
रहन-सहन
दशा-दिशा
अँगारे-धुआँ
कोई सेंध लगाकर
देख लेता है आरपार
एक ओर
कलात्मक चित्रकारी की भरमार
दूसरी ओर
कीलें ठोककर अस्थायी छप्पर
हवा में हवा होती नैतिकता
के परिवेश में
नंगनाच करती भौतिकता
बैठेंगे खग-वृन्द दीवार पर
किसी की पूँछ
किसी की चोंच
देखेंगे नौनिहाल
दीवार ढोती है
व्यक्ति की निजता
अस्थायी सुरक्षा का पता
संकीर्णता के कीड़े-मकोड़े
सहती है महत्त्वाकाँक्षा के हथौड़े
प्रकृति सिहर उठती है
असीम वेदना से
सहती है नादान इंसान के
स्वकेन्द्रित क्रिया-कलाप
हवा-पानी धूप-चाँदनी से
कहती है-
भेदभाव हमारी नीयत में नहीं
सारमय नीरव इशारे समझने की दक्षता
उन्मादी मग़्ज़वाली खोपड़ी में नहीं।
© रवीन्द्र सिंह यादव
जवाब देंहटाएंजी नमस्ते,
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा शनिवार(२२-०२-२०२०) को 'शिव शंभु' (चर्चा अंक-३६१९) पर भी होगी।
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
आप भी सादर आमंत्रित है
….
अनीता सैनी
दोस्त, कविता तुम्हारी विचारोत्तेजक है. लेकिन दीवार उठने के पीछे की कहानी तुम मुझ से सुनो ! ऊंची-ऊंची दीवार उठ रही है अर्थात् 'लोक' एक तरफ़ और 'तंत्र' दूसरी तरफ़ !
जवाब देंहटाएंइस पर हम-तुम जो ऐतराज़ कर रहे हैं, वो नादानी है.
अक्लमंदी इसी में है कि हम-तुम भी 'लोक' की जगह 'तंत्र' वाले हिस्से में चले आएं और जन-सेवक की उपाधि भी ग्रहण करें.
सुन्दर
जवाब देंहटाएंआदरणीय रवींद्र जी प्रणाम! आपकी यह रचना कई मायनों में सारगर्भित विषय की ओर इशारा करती है। केवल दीवार की ओट कर देने मात्र से ही देश की ग़रीबी दूर नहीं होने वाली यदि यह स्थाई हल है तो सरकारों को पूरे देश के चारों ओर दीवार बना देनी चाहिये और संसद को भंग कर बाहर खड़े होकर केवल तमाशा देखना चाहिये। बाहर से आने वाला हर विदेशी आगंतुक केवल हमारे देश की दीवार और उसपर बने रंग-विरंगे चित्र देखकर लौट जाये और जाकर इस देश की दीवार का वर्णन करे और बताये कि यह देश कितना समृद्धशाली है क्योंकि इसकी दीवारों पर केवल विकास की बातें ही लिखी गईं हैं। बाक़ी अब और कुछ नहीं कहूँगा आप स्वयं मेरे मन की दीवार के पार झाँक लीजिये जिससे यह साफ़ हो जायेगा कि मैं आपके इस सृजन के बारे में क्या सोचता हूँ। सादर 'एकलव्य'
जवाब देंहटाएंलाख उठा लो दीवारें पर अगर मंशा तुम्हारी काली है.. दीवारों के अंदर चिनवाये गए गरीबों के सपने आगंतुक को जरूर नजर आएंगे.. आज की स्मार्ट युग में कोई ना कोई तंत्र असलियत बाहर लाकर रख ही देता है..।
जवाब देंहटाएंदीवारें खड़ी करके गरीबी को ढकने की सोच कितनी काली है अगर करना ही था तो उन ईटों से कुछ घर ही बना देते.. लेकिन ऐसा वह नहीं करेंगे गरीबी हटाना उनका उद्देश्य नहीं है गरीबों को टुकड़े-टुकड़े पालते जाना यह उनका मुख्य उद्देश्य बन रहा है..
रविंद्र जी आपकी कविता से प्रभावित होकर मैंने अपने मन की बात तो कह दी लेकिन बहुत ही अच्छा लगा कि वर्तमान परिपेक्ष में आपने यह कविता लिखी जो वाकई में आज के समय में इस तरह की चीजें आनी चाहिए... ऐसे समय पर सत्य को सबके सामने ला रहे हैं जब लोग सत्य कहने से डरते हैं क्योंकि सत्य कहने वाले लोगों को यह लोग सलाखों के पीछे डालने से अब कोई गुरेज नहीं करते हैं
सत्य को ज्यों का त्यों लिख देने की निर्भीकता आपकी कविताओं में हमेशा चिन्हित होती है यह आने वाले समय के लिए बहुत बड़ी पूंजी कहीं जाएगी... क्योंकि कभी ना कभी हम भी इतिहास बन जाएंगे.. आपकी इस सारगर्भित रचना के लिए आपको बहुत-बहुत बधाई
बेहतरीन रचना आदरणीय 👌
जवाब देंहटाएंआदरणीय सर सादर प्रणाम 🙏
जवाब देंहटाएंबहुत खूब लिखा आपने। शर्म की बात है कि आज मेहमान के स्वागत में हम अपने ही देशवासीयों को गंदगी समझ छुपाते फिर रहे। यदि इतनी समस्या थी तो इन लोगों के लिए कुछ काम ही कर लेते बड़ी बड़ी बातों की जगह। ये दीवार वाली न्यूज देखने के बाद हमे बस ' जॉर्ज पंचम की नाक ' याद आयी। बाकी जैसा आदरणीय गोपेश सर ने कहा कि इस दीवार ने लोक और तंत्र को बाँट दिया है।..... बस यही कहेंगे कि अपनी नाक बचाते बचाते देश की नाक काट रहे ये लोग।
आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" में सोमवार 24 फरवरी 2020 को साझा की गयी है......... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंसुन्दर अभिव्यक्ति।
जवाब देंहटाएंवाह!रविन्द्र जी ,बहुत खूब !
जवाब देंहटाएंहाल ही में दीवार बनी हमारे ही शहर में ,क्या तरीका है ,गरीबी को छुपाने का ...।
प्रकृति सिहर उठती है
जवाब देंहटाएंअसीम वेदना से
सहती है नादान इंसान के
स्वकेन्द्रित क्रिया-कलाप
हवा-पानी धूप-चाँदनी से
कहती है-
आवरण में लिपटा पंक पहलू, जितना छुपाओ मिडिया उसे विविध रूप मे उछाल उछाल नये नये रूप में पुरे विश्व में पहुंचा चुकी है ,
बस दीये के नीचे का अंधेरा दीया खुद नहीं देखता।
रचना कम शब्दों में अपने भाव रखने में समर्थ हुई सार्थक लेखन।
सुंदर अभिव्यक्ति सर ,सादर नमन
जवाब देंहटाएंआदरणीय / आदरणीया आपके द्वारा 'सृजित' रचना ''लोकतंत्र'' संवाद मंच पर 'बुधवार' २६ फ़रवरी २०२० को साप्ताहिक 'बुधवारीय' अंक में लिंक की गई है। आमंत्रण में आपको 'लोकतंत्र' संवाद मंच की ओर से शुभकामनाएं और टिप्पणी दोनों समाहित हैं। अतः आप सादर आमंत्रित हैं। धन्यवाद "एकलव्य" https://loktantrasanvad.blogspot.in/
जवाब देंहटाएंटीपें : अब "लोकतंत्र" संवाद मंच प्रत्येक 'बुधवार, सप्ताहभर की श्रेष्ठ रचनाओं के साथ आप सभी के समक्ष उपस्थित होगा। रचनाओं के लिंक्स सप्ताहभर मुख्य पृष्ठ पर वाचन हेतु उपलब्ध रहेंगे।
आवश्यक सूचना : रचनाएं लिंक करने का उद्देश्य रचनाकार की मौलिकता का हनन करना कदापि नहीं हैं बल्कि उसके ब्लॉग तक साहित्य प्रेमियों को निर्बाध पहुँचाना है ताकि उक्त लेखक और उसकी रचनाधर्मिता से पाठक स्वयं परिचित हो सके, यही हमारा प्रयास है। यह कोई व्यवसायिक कार्य नहीं है बल्कि साहित्य के प्रति हमारा समर्पण है। सादर 'एकलव्य'
समकालीन सार्थक रचना ।
जवाब देंहटाएंसादर।