बसंत तुम आ तो गये हो!
लेकिन कहाँ है...
तुम्हारी सौम्य सुकुमारता ?
आओ!
देखो!
कैसे कोमल मन है हारता।
खेत, नदी, झरने, बर्फ़ीली पर्वत-मालाओं में
फ़स्ल-ए-गुल के अनुपम नज़ारे,
बुलबुल, कोयल, मयूर, टिटहरी
टीसभरे बोलों से बसंतोत्सव को पुकारे।
अमराइयों में नवोदित मंजरियों का
बसंती-बयार के साथ मोहक नृत्य,
मानव का सौंदर्यबोध से पलायन
वर्चस्व-चेष्टा के अनेक आलोच्य-कृत्य।
अभी गुज़र जाओ चुपचाप
सन्नाटे में विलीन है पदचाप
बदलती परिभाषाओं की व्याख्या में
अनवरत तल्लीन हैं बसंत-चितेरे।
© रवीन्द्र सिंह यादव
जी नमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा रविवार(0२-०२-२०२०) को "बसंत के दरख्त "(चर्चा अंक - ३५९९) पर भी होगी।
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
आप भी सादर आमंत्रित है
….
-अनीता सैनी
सत्य कहा आदरणीय रवींद्र जी आपने, बसंत का आना या ना आना यह पूर्णतः हमारी सोच और समाज की वर्तमान दशा पर निर्भर करता है। अब एक उदाहरण के ज़रिये इस बात को मैं समझाऊँगा कि होली के एक रात पहले कई उपद्रवी लोग गाँवों के ग़रीबों की खटिया होलिका की आग में डाल देते हैं और अपने मन को तसल्ली देते हैं फिरते हैं कि इस बार की होलिका नज़ारा बड़ा अच्छा लगा क्योंकि होलिका के आग की लपटें पूरे ज़ोरों पर थीं और वहीं दूसरी तरफ़ दूसरा व्यक्ति जिसकी खटिया ज़बर्दस्ती जलाई जा रही होती है वह अपनी खटिया के जलने से होलिका और उन उदंडियों को भर-भर मुँह कोस रहा होता है अंततः मैं यही कहूँगा कि सोने के चमच्च मुँह में लेकर पैदा होने वाले बसंत मनाये, गीत गायें और जिन किसानों और मज़दूर वर्ग के लोगों की सरकारों की ग़लत नीतियों के चलते इस बढ़ती महँगाई ने कमर तोड़ रखी है वह अनिश्चितकाल के लिए शोकगीत गायें! आपकी रचना सदैव ही सत्य को यथार्थ के धरातल पर रस्सी बाँधकर घसीट लाती है। सादर नमन आपकी लेखनी को! 'एकलव्य'
जवाब देंहटाएंजितनी सुन्दर रचना, उतनी ही सुंदर व्याख्या है आदरणीय एकलव्य जी की। बसंत तो बहाना है, दिलों में बसंत जगाना है। सादर नमन।
जवाब देंहटाएंअभी गुज़र जाओ चुपचाप
जवाब देंहटाएंसन्नाटे में विलीन है पदचाप
बदलती परिभाषाओं की व्याख्या में
अनवरत तल्लीन हैं बसंत-चितेरे। बहुत सुंदर और सार्थक रचना आदरणीय।
बहुतो को तो पता भी नही चलता और बसंत आकर चला जाता है। आदरणीय सर जैसा की आदरणीय ध्रुव सर ने कहा सत्य में आपकी रचनाएँ सदा ही सत्य को लाकर सामने रख देती हैं। अब सत्य की क्या सराहना करें! बस नमन आपकी लेखनी और आपको एसी सार्थक और सटीक पंक्तियों को लिखने हेतु। सादर प्रणाम 🙏
जवाब देंहटाएंजी नमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी लिखी रचना मंगलवार ४ फरवरी २०२० के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।
बसंत की बेहद खूबसूरत रचना
जवाब देंहटाएंबधाई
वाह!रविन्द्र जी ,बहुत खूब ! बसंत कब आया कब गया ,कितने ही लोग जान ही नहीं पाते ,उनके जीवन में शायद कभी बसंत नहीं आता । सटीक रचना ।
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर
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