अचानक
क्वारंटीन हुए
एक पक्षी प्रेमी ने
क्वारंटीन सेंटर से
मित्र को फोन किया
अपने प्यारे तोता-तोती को
उसके घर ले जाने का
अनुरोध किया
पिंजड़े में बंद
तोते चिंतामग्न थे
मालिक की
करोना-वायरस बीमारी से
विचलित थे
सोच रहे थे-
मानव तुम हो बहुत भले
जल्दी हो जाओ चंगे-भले
हमें सुंदर पिंजड़े में रखते हो
नियमित इसे साफ़ करते हो
दाना-पानी
मनचीते फल
गाजर-हरी मिर्ची
ताज़ा-ताज़ा लाते हो
हमें पिजड़े में ही नहलाते हो
सलाख़ें बहुत मज़बूत हैं
लोहे के पिंजड़े कीं
कभी ये गल जाएँ
तेज़ाबी बारिश के छींटों की
ऐसी लक्षित बीम से
जो सबको छोड़कर
केवल सलाख़ों को गला दे
हम मुक्ति का
असीम आनंद लेते हुए
पहले भरेंगे लंबी उड़ान
खुले आकाश में
मिटा डालेंगे
सारी मानसिक थकान
लौटेंगे धरा पर
ताज़ा हवा के इलाक़े में
मरुस्थल की ठंडी रेत में
कुलाँचें भरेंगे
अपने-अपने पैरों-चोंचों से
कुछ नया लिखेंगे
भुरभुरी रेत पर
कल-कल करते झरने में
पंख फड़फड़ाते हुए
एक-दूसरे पर
पानी के छींटे उलीचते हुए
जीभर के पहाड़ी स्रोत का
मीठा नीर पिएँगे
फिर लौटकर आएँगे
तुम्हारे घर के सामने
बूढ़े नीम की
कभी फुनगी पर
कभी छालरहित टहनी पर बैठ
इत्मीनान से मुस्कुराएँगे
तुम्हें कभी न चिढ़ाएँगे
अपनी मुक्ति को
आजीवन सँभालेंगे
फिर किसी
आज़ादी विरोधी स्वार्थी मानव के
हाथ न आएँगे।
©रवीन्द्र सिंह यादव
क्वारंटीन हुए
एक पक्षी प्रेमी ने
क्वारंटीन सेंटर से
मित्र को फोन किया
अपने प्यारे तोता-तोती को
उसके घर ले जाने का
अनुरोध किया
पिंजड़े में बंद
तोते चिंतामग्न थे
मालिक की
करोना-वायरस बीमारी से
विचलित थे
सोच रहे थे-
मानव तुम हो बहुत भले
जल्दी हो जाओ चंगे-भले
हमें सुंदर पिंजड़े में रखते हो
नियमित इसे साफ़ करते हो
दाना-पानी
मनचीते फल
गाजर-हरी मिर्ची
ताज़ा-ताज़ा लाते हो
हमें पिजड़े में ही नहलाते हो
सलाख़ें बहुत मज़बूत हैं
लोहे के पिंजड़े कीं
कभी ये गल जाएँ
तेज़ाबी बारिश के छींटों की
ऐसी लक्षित बीम से
जो सबको छोड़कर
केवल सलाख़ों को गला दे
हम मुक्ति का
असीम आनंद लेते हुए
पहले भरेंगे लंबी उड़ान
खुले आकाश में
मिटा डालेंगे
सारी मानसिक थकान
लौटेंगे धरा पर
ताज़ा हवा के इलाक़े में
मरुस्थल की ठंडी रेत में
कुलाँचें भरेंगे
अपने-अपने पैरों-चोंचों से
कुछ नया लिखेंगे
भुरभुरी रेत पर
कल-कल करते झरने में
पंख फड़फड़ाते हुए
एक-दूसरे पर
पानी के छींटे उलीचते हुए
जीभर के पहाड़ी स्रोत का
मीठा नीर पिएँगे
फिर लौटकर आएँगे
तुम्हारे घर के सामने
बूढ़े नीम की
कभी फुनगी पर
कभी छालरहित टहनी पर बैठ
इत्मीनान से मुस्कुराएँगे
तुम्हें कभी न चिढ़ाएँगे
अपनी मुक्ति को
आजीवन सँभालेंगे
फिर किसी
आज़ादी विरोधी स्वार्थी मानव के
हाथ न आएँगे।
©रवीन्द्र सिंह यादव
वाह...कैद पक्षी का सुंदर स्वप्न।
जवाब देंहटाएंकविता में निहित भाव आपके गहन विचारों का विस्तृत रूप है। पराधीनता किसी भी रुप में स्वीकार नहीं की जा सकती है।
करोना काल में आपकी क़लम की मुखरता प्रशंसनीय है।
सुन्दर
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंसादर नमस्कार ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (19 -4 -2020 ) को शब्द-सृजन-१७ " मरुस्थल " (चर्चा अंक-3676) पर भी होगी,
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
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कामिनी सिन्हा
बहुत बढ़िया
जवाब देंहटाएंउव्वाहहहहहह...
जवाब देंहटाएंसादर..