बुधवार, 28 दिसंबर 2016

कल और आज




आओ   अब   अतीत   में   झाँकें...

आधुनिकता   ने   ज़मीर

क्षत-विक्षत    कर   डाला   है.



भौतिकता   के   प्रति  

यह   कैसी   अभेद्य   निष्ठा

दर्पण   पर   धूल

छतों   पर   मकड़ी    के   जाले

कृत्रिम   फूल-पत्तियों    में  

जीवन  के   प्रवाह  का  अन्वेषण.



सपने   संगठित   हो    रहे

विखंडित   मूल्यों   की   नींव    पर

भूमि-व्योम   में

कलुषित   विचारों   का     विनिमय

मानवता  के   समक्ष   अबूझ  पहेली.



झूठा   आदर्श  मथ   रहा

मानस   हमारा

त्रासद  है

मन   का   बुझकर   विराम  लेना.



हो   रहे  विलुप्त

दैनिक   जीवन   से

सामाजिक  मूल्य

प्रेम, करुणा,  दया,  सहयोग, चारित्रिक-शुचिता

दूसरों  की   परवाह  में   प्रसन्नता

व्यक्ति  से  कोसों  आगे  चल   रहे  हैं .



आओ   ठिठककर   खोलें

बीते  कल  का  कोई  झरोखा

देखें  सौंदर्यबोध   की   व्यग्रता   से

कितनी  दूर  आ  गये  हैं  हम....!

पदार्थवाद   में

कितना   धंस   चुके   हैं   हम.....!!

#रवीन्द्र सिंह यादव 

शुक्रवार, 23 दिसंबर 2016

आजकल



राहत     की    बात  

 हवा       हुई,

     मुश्किल    एक    से        

सवा      हुई।



कमाई   नौ   दो  ग्यारह      

हो    चली,

हथेली    तप-तप    कर     

तवा        हुई। 

मुश्किल     एक      से        

सवा      हुई।



भूख        से        

अब            हुए,

गेंहूँ      की      मिगी     

मैदा  -  रवा      हुई । 

    मुश्किल    एक    से        

सवा      हुई।





चार      बाटी    दबाईं   

अलसाई  आँच   में,

अंगीठी    भड़ककर        

अवा         हुई। 

   मुश्किल    एक     से        

सवा      हुई।



आये  हैं अमीर-फ़क़ीर     

हालात     बदलने,

ख़ुशी    केवल    इनकी     

हमनवा      हुई। 

   मुश्किल     एक     से        

सवा      हुई।



लाख   टके   की  बात  

दो  टके  की  न  करो,

ज़हर    की     गोली     

कब     दवा      हुई?  

   मुश्किल   एक     से        

सवा      हुई।


 @ रवीन्द्र  सिंह  यादव

बुधवार, 21 दिसंबर 2016

बादल आवारा


आवारा     बादल    हूँ     मैं
अपने  झुंड  से  बिछड़  गया  हूँ   मैं
भटकन   निरुद्देश्य   न  हो
इस  उलझन  में  सिमट  गया  हूँ   मैं।


सूरज  की  तपिश  से  बना   हूँ   मैं
धनात्मक  हूँ   या  ऋणात्मक  हूँ  मैं
इस ज्ञान  से  अनभिज्ञ  हूँ    मैं
बादलों   के  ध्रुवीकरण
और  टकराव  की  नियति   से   
छिटक    गया  हूँ   मैं
बिजली  और  गड़गड़ाहट से  
बिदक  गया   हूँ   मैं।


सीमेंट-सरिया   के   जंगल   से   दूर
उस  बस्ती  में   बरसना   चाहता  हूँ    मैं
जहाँ...

जल  की  आस   में
दीनू   का  खेत  सूखा  है  
रोटी   के   इंतज़ार   में  
नन्हीं   मुनिया  का  पेट  भूखा   है  
लहलहाती  फ़सलों  को
निहारने  सुखिया  की आँखें   पथरायीं  हैं
सीमा   पर  डटे  पिया   की  बाट   जोहती
सजनी की निगाहें  उदास  दर्पण से टकरायीं हैं
गलियों   में  बहते  मटमैले  पानी  में
बचपन  छप-छप  करने   को  आकुल  है  
अल्हड़  गोरी  हमउम्र सखियों  संग
झूले पर  गीत  गाने  को  व्याकुल  है।    


माटी  की  भीनीं-सौंधी  गंध
हवा   में   बिखर    जायेगी  
हरियाली   की  चादर   ओढ़  
पुलकित   बसुधा   लजायेगी 
नफ़रत  बहेगी नालों में
सद्भाव   उगेंगे   ख़यालों में। 


उगे  हैं  बंध्या-धरती   पर  शूल   जहाँ
पुष्पित  होंगे   रंग-बिरंगे  फूल   वहाँ
सूखे    कंठ   जब   तर-ब-तर   होंगे
अनंत   आशीष    मेरे    सर    होंगे।


यह  दृश्य   देख  
बादल  होने  पर   इतराऊँगा  
काल-चक्र    ने  चाहा   तो
फिर  बरसने  आऊँगा........!!!

#रवीन्द्र सिंह यादव 


सोमवार, 5 दिसंबर 2016

आज जलंधर फिर आया है...



आज  जलंधर फिर आया है


हाहाकार          मचाने   को 


अट्टहास   करता   है    देखो


अपना  दम्भ   दिखाने   को ...(1 )




अहंकार    के  आँगन  में 
    

त्रिदेवों  को  ललकार रहा   है ,


अनुनय- विनय  वचन   प्रार्थना  
  

सबको   ठोकर   मार   रहा   है। 
  

आज    बहुत चिंघाड़ रहा है 


बदला  -  भाव    दर्शाने     को ,




आज जलंधर फिर आया है


हाहाकार   मचाने   को।  ...(2 )







नेत्र तीसरा खुला था शिव का



ज्वाला   का   अम्बार   लगा

सागर  में  बरसी  ज्वाला तो 


पानी   को   भी   भार   लगा 


उपजा असुर जलंधर जग में 


भय   का   राग   सुनाने  को



आज  जलंधर फिर आया  है




हाहाकार  मचाने   को।...(3  )






आयोजन सागर- मंथन   का


सुर- असुर का साझा श्रम था 


रत्न   मिलेंगे   बाँट   बराबर 


असुरों  को  ऐसा  ही भ्रम था 


अमृत पर  संग्राम छिड़ा जब 


प्रकट  हुई  तब एक  मोहिनी



चालाकी     दिखलाने     को




आज जलंधर फिर  आया  है




हाहाकार  मचाने को।...(4 ) 





भेदभाव      से    अमृत   का

बंटबारा   होने    वाला     था 

भांप        गए        राहू-केतु  


पलभर  में बदला   पाला  था  


अमृतपान   किया   दोनों  ने 

भयमुक्त      हुए        असुर 


ग्रीवा   अपनी   कटवाने   को



आज   जलंधर  फिर आया है




हाहाकार  मचाने  को।... (5 )
       






आज   जलंधर  मांग  रहा है 


रत्न-सम्पदा     सारी    लूट 


अहंकार    के   दर्प  में  डूबा 


हर  बंधन  से  गया  है  छूट 


पार्वती    को   पाना     चाहे 


शिव   का  क्रोध  जगाने को 



आज  जलंधर फिर आया है





हाहाकार  मचाने को।...(6 )





दे दी इसको शिव ने शक्ति


विष्णु  ने भी झोली भर दी 


ब्रह्मा  ने  भी   वरदानों से 


इसकी   मंशा   पूरी कर दी 


त्राहि-त्राहि  की गूँज उठी है 


आत्ममुग्ध हो जुटा हुआ है  



मन   का  रूप  सजाने   को




आज जलंधर  फिर आया है




हाहाकार  मचाने  को।...(7 )





पतिवृत -धर्म     निभाने  वाली


इसकी      पत्नी      वृंदा      है


त्याग,  तपस्या   भार्या   की  है 


जिससे    अब    तक   ज़िंदा  है 


देने    अभयदान    सृष्टि     को
  

आये शिव रौद्र रूप दिखलाने  को



आज    जलंधर     फिर  आया है




हाहाकार  मचाने  को।...(8 )






विष्णु  ने  मायाजाल   रचा 

वृंदा   से   छल   करना  था 


जलंधर     की    मृत्यु   का


यक्ष-प्रश्न    हल   करना था 


वृंदा  को छल का भान  हुआ 


क्रोधित         हो    अकुलाई 



श्राप   के   बोल  सुनाने   को




आज  जलंधर  फिर  आया है




हाहाकार  मचाने  को।... 9   )






भीषण   महासंग्राम में  शिव ने 


आतातायी  का  वध  कर  डाला 


वृंदा   ने   अपने  तप  बल    से


विष्णु   को   पत्थर   कर  डाला 


नारद   अब   आकर  प्रकट  हुए 


बिगड़ी     बात    बनाने       को 



आज    जलंधर   फिर   आया है




हाहाकार   मचाने  को।... 10   )










वृंदा आज भी तुलसी बनकर

घर-घर  में   पूजी  जाती   हैं

शालिग्राम  बन   विष्णु   की 


श्रद्धा    से    पूजा    होती   है


रहे   जलंधर   ध्यान   हमारे 


युग-युग   को    समझाने को



आज   जलंधर  फिर आया है




हाहाकार  मचाने  को।...(11)








सहज     संतुलन   सृष्टि  का


रखने   को    विष्णु- लीला  है 

पीते -पीते   तीक्ष्ण     हलाहल

शिव- कंठ  अभी  तक नीला है

छल, दम्भ, झूठ, पाखण्ड सभी 

छाये   हैं    सत्य    दबाने    को 


आज   जलंधर   फिर  आया  है



हाहाकार   मचाने  को।... 12   )






उन्मादी   माहौल  में  दबकर 


कुछ   ऐसे   भी   न्याय  हुए 



मानवता   को  रौंद    डालने



शुरू    नए    अध्याय     हुए


अहंकार   के    अन्धकार  में 



आये  कोई   दीप  जलाने को




आज  जलंधर  फिर आया है


हाहाकार  मचाने को।... (13)


@रवीन्द्र सिंह यादव 

मंगलवार, 29 नवंबर 2016

लकड़हारा




सर पर  सूखी  लकड़ियों  का 

भारी   गट्ठर    लादे

शहरों-

कस्बों   की  गलियों  में  

दीखता   था।



अंगौछे   की   कुंडली   बनाकर  

सर  और   सख़्त  सूखी  टहनियों  के  गट्ठर   के  केन्द्र  में   रखता  था

खोपड़ी   की   खाल   में  

लकड़ियों   की  चुभन   कम   होती   होगी...

कुल्हाड़ी   भी  गट्ठर    में  मुँह   छिपाये   रहती  थी।



लकड़ियाँ   बेचता   था  

उसी   को   जो   उसे   बुला   ले   

करता   सौदा   उसी    से    

जो   दाम   ठहरा  ले  

गट्ठर   से   कुल्हाड़ी   निकाल 

रख  देता   था   लकड़ियाँ 

ख़रीदार   की  बांछित   जगह   पर  .... ।



बोझ   उतर   जाने पर   

लेता  था   पुरसुकून   की   सांस 

पल  दो  पल  बीतने   के   उपरान्त 

सालने  लगती 

भीतर   दबी  हुई   फाँस .....।


कमाई   को   गिन-गिन   दोहराता 

अंगौछे  से  पसीना  पौंछता  

आटा   दाल    सब्ज़ी  

नमक   मिर्च  तेल

माँ   की  दवाई   

बच्चों   की जलेबी ...!



पैसा  मिला   लेकिन   बाज़ार  ने  ले  लिया 

बदले  में  थोड़ा  सामान  दे  दिया

लौटता  था  घर   अपने  

बुदबुदाता   हुआ 

कुछ और  वृक्ष   सूख जाएं  .....!

आधुनिकता  के  अंधड़   में

अब  लकड़हारा   कहीं   बिला  गया   है.......................!!

#रवीन्द्र सिंह यादव 
  

मंगलवार, 15 नवंबर 2016

बहुरुपिया

बहुरुपिया आया.............!!!!!

बहुरुपिया आया...................!!!!!

शोर  सुनकर  कौतूहलवश

बच्चे, बूढ़े, अधेड़, जवान  सभी

देखने  आये  लपककर

पहले  वह  धवल  वस्त्र  धारण  कर

योगी  के  वेश  में  आया

सड़क  के  दोनों  ओर

बनी दुकानों, छतों  और  बालकनी  से  देख  रहे  लोग

सत्कार भाव से

सराह  रहे  थे  निहार  रहे  थे  उसका  वियोग

अगले  दिन  हाथ  में  लाठी  लिये

शीटी  बजाता  हुआ  चौकीदार  बनकर  आ  गया

बच्चों  को  खूब  भा  गया

कभी  भगवान  बनकर  आया

कभी  कसाई  बनकर  आया

एक  दिन  मजनूं   बनकर  आ  गया

फिर  सैनिक  बनकर  आया

अगले  दिन  डॉक्टर  का  आला  गले  में  डालकर  आ  गया

सात  दिन  जनता  का  मनोरंजन  किया

आठवें  दिन   नाटकीयता  के  बदले  आशीर्वाद  मांगने आ  गया

लोगों ने  यथाशक्ति  उसे  नोट  दिये

ज़ेहन  में  बहुरुपिया  के  नकली  रूप  नोट  किये.......

बच्चों  को  बड़ों  ने  सीख  दी..... 

यह  शख़्स   केवल  मनोरंजन  के  लिये  है..... !

इतने  रूप  अनापेक्षित  हैं  एक   जीवन  के  लिये................!!

#रवीन्द्र सिंह यादव 




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