सोमवार, 22 मार्च 2021

मत लिखो कि...

मत लिखो कि सरकार 

भ्रष्ट है 

मत लिखो कि 

निरीह जनता 

सरकारी नीतियों से त्रस्त है

मत लिखो कि 

धूर्त पाखंडी

उन्माद के बीज बो रहे हैं 

मत लिखो कि 

युवा षड्यंत्र के मोहरे हो रहे हैं

मत लिखो कि 

न्याय सहज सुलभ नहीं है 

मत लिखो कि

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता अब नहीं है 

मत लिखो कि 

व्यवस्था सड़-गल गई है 

मत लिखो कि 

सत्ता संवेदना को मसल गई है

मत लिखो कि 

ऑक्सीजन के अभाव में बच्चे मर रहे हैं 

मत लिखो कि 

दंगाई संरक्षण में हरी घास चर रहे हैं 

मत लिखो कि 

क़ानून का पालन मनमाना हो रहा है  

मत लिखो कि 

भूख से व्याकुल इलाक़ा रो रहा है 

मत लिखो कि 

शोषण के सूत्र शातिर दिमाग़ों की पूँजी है 

मत लिखो कि 

शिक्षा में मनगढंत विषयों को लाने की क्यों सूझी है

मत लिखो कि 

117 दिन से किसान आंदोलनरत क्यों हैं?

मत लिखो कि 

सरकारी संपत्तियाँ ख़रीदनेवालों संग 

सरकारी उँगलियाँ मित्रवत क्यों हैं?

मत लिखो कि 

दलों को चंदा कैसे मिल रहा है?

मत लिखो कि 

आदमी का ईमान कैसे हिल रहा है?

मत लिखो कि 

गवाह डराए धमकाए ख़रीदे जा रहे हैं 

मत लिखो कि 

पेड़ क्यों काटे जा रहे हैं? 

लिखो कि 

समय का सच 

अचर्चित रहकर गुज़र जाने का हामी है 

स्वतंत्रता खोकर जीवन जीना तो बस नाकामी है!  

© रवीन्द्र सिंह यादव  

   

रविवार, 21 मार्च 2021

आम की गुठली का मासूम प्रश्न


1. 

पथिक ने एक गुठली ठुकराई,

लू के मौसम में बहती पुरवाई। 

   

गुठली उछली खेत की मेंड़ पर आई,

ठोकर खाकर आपे से बाहर आई,

रे पथिक! 

जड़ नहीं चेतन हूँ- कहकर चिल्लाई,

सृजन का बीज हूँ 

मुझमें सोई समर्थ अमराई!

पथिक ने एक गुठली ठुकराई। 

2. 

सुनो, ख़ुदग़रज़ आदमी!

क्या भरी है मुझमें ख़ामी?

फेंकी जाती हूँ 

अक्सर घोर उपेक्षा से,

ढूँढ़ा करता है 

कोई मीत मुझे सदेच्छा से,

कभी जा गिरी पथरीली सतह पर,

दब जाती हूँ प्लास्टिक की तह पर,

मिलें अनुकूल मौसम में 

हवा मिट्टी पानी धूप,

अंकुरित हो निखरे 

किसलय संग मेरा नन्हा रूप,

परवश हूँ 

न जानूँ मानव-सी चतुराई!

पथिक ने एक गुठली ठुकराई।

 3. 

कहा पथिक ने 

आत्मग्लानिवश होकर,

क्षमा करो! 

अनजाने में मारी है ठोकर,

सृष्टि की महिमा में 

उसका उर द्रवित हुआ,

अंतरमन को 

गुठली की गहन वेदना ने छुआ,

कहो! कहानी 

शेष रही जो ए गुठली!

मेरे भीतर अब तो  

उत्कट उत्कंठा अकुलाई!

पथिक ने एक गुठली ठुकराई। 

4. 

सुनो! बाग़ में खड़ा है 

एक बूढ़ा मीठा आम, 

मेरा जनक होने पर 

है उसको अभिमान,            

अमराई में गीत सुने हैं 

कोमल कोकिला के, 

छाया में बैठे देखे 

पीर से पीड़ित पथिक महान,

बसंत में मंजरियों पर छाया यौवन, 

अमियाँ झुलाने बहती पुरवाई पवन,

खेल-खेल में बढ़ते-बढ़ते,

तेज़ घाम में बढ़ते-बढ़ते, 

कच्ची अमियाँ रसीला आम हो गई, 

मैं भी अंदर ही अंदर कठोर हो गई,

आम-कैरी मंडी हाट-बाज़ार पहुँचकर 

पेटों में पच गए,

कदाचित दो आम 

आदमी की लालची दृष्टि से 

वृक्ष पर बच गए,

एक दिन आए 

कुछ बच्चे नादान बाग़ में,

झुलस रहे थे 

जून की झुलसाती आग में,

मेरे साथी पर पड़ी थी 

उत्सुक दृष्टि उनकी,

कदाचित थी 

आम तोड़ने की योजना उनकी,

पत्थर-डंडे फेंक-फेंककर 

साथी उनके हाथ लगा,

मेरा मन विचलित होने से 

अब रुक न सका,

टुकड़े-टुकड़े मीठा आम खाया,

कोई ख़याल उनके मन आया,

गुठली को तोड़ा पत्थर से,

अंदर थी मिगी बड़ी सलोनी-सी,

थी सूरत अब उसकी रोनी-सी, 

एक बच्चे ने दबाई मिगी 

तर्जनी और अँगूठे से, 

सब मिलकर बोले- 

उछाल! उछाल!!

तेरी शादी आएगी उसी दिशा से,

उछलकर जाएगी गुठली 

जिस दिशा में फिसलकर बंधन से, 

जाते-जाते 

वे मिगी के टुकड़े-टुकड़े कर गए,

कुछ राह में फेंके उन्होंने 

कुछ चटपट चट कर गए,

खेल-खेल में वे नादान 

एक वृक्ष की संभावना ख़त्म कर गए,

कहते-कहते आत्मकथा 

रुआसी आवाज़ हुई भर्राई!

पथिक ने एक गुठली ठुकराई।  

5. 

पथिक बोला-

तुम्हारे साथ क्या घटित हुआ?

तब गुठली की बातों से 

रहस्य उद्घाटित हुआ। 

होता क्या रे! 

मैं भी एक दिन 

एक चरवाहे की नज़र चढ़ गई,

बहुत दिनों छिपी रही पत्तों में 

उस दिन उघड़ गई,

गिरा न पाए थे 

आँधी तोते और गिलहरियाँ,

मेरा पालक 

रोज़-रोज़ लेता रहा बलैयाँ, 

आम हुआ था 

पककर पूरा पीला रसीला,

चरवाहा ही जाने 

ज़बान के चटख़ारे की लीला,

नियति-चक्र की समझो 

जानी-अनजानी भरपाई!

पथिक ने एक गुठली ठुकराई।

6. 

हे गुठली! मैं शर्मिंदा हूँ! 

सृष्टि की गोद में ज़िंदा हूँ!

ऐसी क्रूर अशिष्टता 

अब न होगी मुझसे,

क्या तुम 

दोस्ती कर सकोगी मुझसे?

सुनकर प्रश्न पथिक का 

गुठली ने ली अंगड़ाई!

पथिक ने एक गुठली ठुकराई।

7. 

सुनो पथिक! शेष अभी है कहानी,

मेरे जनक की कथा तुम्हें है सुनानी। 

कहानी यहाँ ख़त्म नहीं होती है,

मैं जिसकी संतान हूँ 

उसकी कथा 

मुझमें स्वाभिमान का बीज बोती है,

वह तब गुठली होने पर 

इतराई, इठलाई थी, 

जब अमीर घर से 

मीठे आम की गुठली 

ग़रीब किसान के हाथ आई थी,

गमले में हुआ सहज अंकुरण 

बाग़ में हुई कुशल हाथों से रोपाई थी,

पशुओं से बचा-बचाकर बड़ा किया 

पेड़ बनने तक खाद-पानी दिया

क्या ऐसा आदमी क़ुदरत ने 

अब पैदा करना बंद कर दिया...?

गुठली का गंभीर मासूम प्रश्न सुन 

पथिक तो हुआ निरुत्तर, 

सोचा, बनना होगा जग में 

इंसान को और भी बेहतर!

गुठली की बात सुनो रे! 

नहीं तो इत कुआँ उत खाई!

पथिक ने एक गुठली ठुकराई।

© रवीन्द्र सिंह यादव     







शुक्रवार, 19 मार्च 2021

विकास और भारत


याद करो 

पिछले पचास वर्ष 

हम 

इतने स्वकेन्द्रित तो नहीं थे

मानसिकता के धरातल पर 

जहाँ आज हैं 

तब इतने तो नहीं थे  

दुनिया 

विकास करती रही

परमाणु बम बनाने की 

अंधी दौड़ चलती रही 

भौतिकता के विस्तार में

संवेदनाविहीन हुई

व्यक्ति की पाशविक कुंठा 

उत्तरोत्तर विकसित हुई 

भूख की चिंता 

अब व्यर्थ का चिंतन है

हथियारों की होड़ में 

लुट रहा धन है   

भारत ने 

वर्ण-व्यवस्था का 

निरर्थक विकास किया 

और वर्गों में बँटी 

दुनिया में 

कुछ आगे हुआ 

तो कहीं 

बहुत पीछे रह गया 

व्यवस्था बदलने आए 

'तीस मार ख़ान' 

'बंदर के हाथ लगी मशाल'

कहावत चरितार्थ करते रहे। 

© रवीन्द्र सिंह यादव

बुधवार, 3 मार्च 2021

फिर जंगली हुआ जाय?

जंगली जीवन से उकताकर 

समाज का सृजन किया 

समाज में स्वेच्छाचारी स्वभाव के 

नियंत्रण का विचार और इच्छाशक्ति 

सामाजिक नियमावली लाई 

नैतिकता की समझ भी आई 

सामाजिक मूल्यों की सुधि आई 

ज्ञान,न्याय,समता,विकास,स्वतंत्रता 

और दंड पर बहस हुई

क़ानून का प्रावधान स्वीकार हुआ 

राजा बादशाह से होते हुए 

जनसेवक का विचार लोकतंत्र लाया 

लोगों ने सोचा अब उन्हें जीना आया 

लोकतंत्र में कब तानाशाही आ गई 

आज़ादी / अभिव्यक्ति जब नियंत्रित हुई

तब होश आया 

लालच और भय की दुदुंभी की गूँज में 

चतुर-चालाक वर्ग को 

सत्ता और पूँजी के साथ खड़ा पाया

तो क्या आज़ादी के लिए 

फिर जंगली हुआ जाय?

या संयमी और समझौतावादी हुआ जाय...? 

© रवीन्द्र सिंह यादव    

 

विशिष्ट पोस्ट

मूल्यविहीन जीवन

चित्र: महेन्द्र सिंह  अहंकारी क्षुद्रताएँ  कितनी वाचाल हो गई हैं  नैतिकता को  रसातल में ठेले जा रही हैं  मूल्यविहीन जीवन जीने को  उत्सुक होत...