गुरुवार, 30 अगस्त 2018

संघर्ष


निकाल...
तेरे तरकश में 
जितने तीर हैं
हमारा क़लम 
तेरे लिए  
 चमचमाती 
शमशीर है (?)


जिगर 
फ़ौलादी हो गया है 
हालात से 
लड़ते-लड़ते
नहीं जीना हमें गवारा 
अब मौत से 
डरते-डरते।  


हम नीम को नीम 
और 
आम को आम ही कहेंगे
इसके लिए ज़ालिम  
तेरा 
हर सितम सहेंगे।  


काग़ज़ी शेर नहीं हम 
मिट्टी के 
मिटते-बनते दीये  हैं
रौशनी रहे 
अँधेरी राहों में 
तो 
चराग़ों में 
ख़ून अपना 
जलने को 
भर दिए हैं।  


ख़ामोशी हमारी 
भारी पड़ेगी 
तेरी सब साज़िशों पर
हमारा अंदाज़ है 
हर हाल में 
मुस्कुराना 
रंजिशें हैं बे-असर 
नवाज़िशों पर।  


हमारा मक़्सद  
इंसाफ़ के लिए
सतत संघर्ष है
पथरीली-कटीली 
राहों पर चलना 
रहा मंज़ूर 
हमें सहर्ष है। 
© रवीन्द्र सिंह यादव

शब्दार्थ / WORD MEANINGS 


शमशीर= तलवार / SWORD 
ज़ालिम  = अत्याचारी, ज़ुल्म ढाने वाला / OPPRESSOR
सितम=अन्याय, अनर्थ / CRUELTY  
नवाज़िश=मेहरबानी, कृपा /KINDNESS, PATRONAGE  



रविवार, 26 अगस्त 2018

भेड़िया और मेमना


भेड़िया 

मेमने से 

कह रहा है 

आप मेरी शरण में 

महफ़ूज़ हैं, सलामत हैं 

मेमना समझ नहीं पाता 

वक़्त की हेरा-फेरी है 

या आयी क़यामत है 

अब शिकारी 

पैंतरे बदल रहा है 

हमदर्द बनकर 

ख़ंजर घौंप रहा है 

मेमने का योजनाबद्ध  

ब्रेन-वाश हो रहा है 

चरवाहा चादर तानकर 

बे-ख़बर सो रहा है 

चरवाहे के वफ़ादार कुत्ते भी 

आजकल भूखे रहने लगे हैं 

मजबूरन दूर-दूर तक 

भोजन तलाशने लगे हैं 

ज़माने की हवा के रुख़ में 

बदलाव का नशा समाया है 

पूछते हैं अब तक 

कैसे और कितना कमाया है?

गाँव-शहर-जंगल तक 

एक ही शोर छाया है

भविष्य की अनिश्चितता का 

ख़ौफ़नाक ख़ामोश ख़तरा क्यों मड़राया है! 

© रवीन्द्र सिंह यादव 

सोमवार, 20 अगस्त 2018

दीमक



हमारे हिस्से में 
जो लिखा था 
सफ़हा-सफ़हा से 
वे हर्फ़-हर्फ़ सारे 
दीमक चाट गयी
डगमगाया है 
काग़ज़ से 
विश्वास हमारा 
पत्थर पर लिखेंगे 
इबारत नई  
सिकुड़ती जा रही 
सब्र की गुँजाइश 
बिखरने के 
अनचाहे सिलसिले हैं 
इंसाफ़ की आवाज़ 
कहाँ गुम है ?
किसने आज़ाद हवा के 
लब सिले हैं?

© रवीन्द्र सिंह यादव

शब्दार्थ / WORD MEANINGS 
सफ़हा = पृष्ठ,पन्ना / PAGE 
हर्फ़ = शब्द / WORD 
लब = होंठ / LIP(S)  



सोमवार, 13 अगस्त 2018

पश्चाताप


एक दिन 

बातों-बातों में 

फूल और तितली झगड़ पड़े 

तमाशबीन भाँपने लगे माजरा खड़े-खड़े 

कोमल कुसुम की नैसर्गिक सुषमा में समाया माधुर्य नयनाभिराम 

रंग, ख़ुशबू , मकरन्द की ख़ातिर मधुमक्खी, तितली, भँवरे करते विश्राम 

फूल आत्ममुग्ध हुआ कहते-कहते 

तितली खिल्ली उड़ाने में हुई मशग़ूल 

यारी की मान-मर्यादा, लिहाज़ गयी भूल 

बोली इतराकर-

पँखुड़ियाँ नज़ाकत से परे हुईं 

धुऐं के कण आसमान से उतरकर गिरे हैं इन पर 

ओस की बूँदों ने चिकनी कालख बनने में मदद की है 

जड़ों को मिला ज़हरीला दूषित पानी 

सुगंध की तासीर बदल रहा है 

पराग आकर्षणविहीन हो रहा है......

आग में घी डालते हुए 

तितली ने आगे कहा-

मैं तो स्वेच्छाचारी हूँ.....

तुम्हारी तरह एक ठौर की वासी नहीं!

फूल का बदन लरज़ने लगा 

ग़ुस्से से भरकर बोला -

आधुनिक आदमियों की बस्ती में रहता हूँ 

मन मारकर क्या-क्या नहीं सहता हूँ 

काल-चक्र की अपनी गति है 

स्थिर रहना मेरी नियति है 

जाओ जंगली ज़मीन पर उगे ड्रोसेरा से मिलो! 

तितली पता लेकर उड़ गयी 

क्रोधाग्नि का ज्वार थमा तो 

फूल आत्मग्लानि से लबरेज़ हुआ 

मिलने आये भँवरे को 

मनाने भेजा तितली के पीछे 

अफ़सोस!

ड्रोसेरा पर रीझकर 

तितली ने गँवाया अपना अस्तित्व 

पश्चाताप की अग्नि में झुलसकर 

विकट दारुण परिस्थिति में फँसकर 

बिखर गया दुखियारा फूल भी 

याद करते-करते हमनवा 

उसके अवशेष ले गयी हवा 

शनै-शनै उड़ाकर जंगल की ओर....! 

पसर गया सन्नाटा-सा सघन सन्नाटा चहुँओर.....!!    

© रवीन्द्र सिंह यादव 





शब्दार्थ / WORD MEANINGS 

ड्रोसेरा (Drosera / Sundews ) = एक कीटभक्षी पौधा / A Carnivorous Plant  

शनिवार, 4 अगस्त 2018

आहट सुनायी देती है.....?


मानवी-झुण्ड 

अपने स्वार्थों की रक्षार्थ 

गूढ़ मंसूबे लक्षित रख 

एक संघ का 

निर्माण करता है 

उसमें भी पृथक-पृथक 

धाराओं को सींचता है 

सुखाता है 

अन्तः-सलिला का 

निर्मल प्रचंड प्रखर प्रवाह

मूल्य स्वाधीनता के 

करता है बेरहमी से तबाह 

गढ़ता है 

नक़ली इतिहास के गवाह 

कहता है- 

मैं हूँ आपका ख़ैर-ख़्वाह......(?) 

जब सामने आता है दर्पण 

भ्रम और भ्रांतियाँ 

चीख़कर सत्य से परे 

भाग नहीं पाती हैं 

एक चेहरे के कई रुख़ 

साफ़ नज़र आते हैं 

तब बचता है 

एक ठगा हुआ 

बेकल अकेला इंसान.......

देखता है 

अपनी शक्ल टुकुर-टुकुर

शर्माता है भोलापन  

सुदूर एक बूढ़े वृक्ष की शाख़ से 

जुदा  होकर 

सूखकर ऐंठा हुआ 

एक खुरदुरा पत्ता 

खिड़की से आकर टकराता है 

तन्द्रा टूट जाती है 

वक़्त के उस लमहे में.....!  

© रवीन्द्र सिंह यादव

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