बुधवार, 23 दिसंबर 2020

सीढ़ी

 मढ़ा अब कहीं नहीं दिखता 

माटी की भीतों का अँधेरा कक्ष  

था बिना झरोखों का होता 

बिना दरवाज़ों के घरों में

आँगन में सूखते अनाज को 

भेड़-बकरियाँ खा जातीं 

माँ को एक उपाय सूझा 

तीन सूखीं-सीधीं  बल्लियाँ मँगवाईं 

एक बल्ली के एक-एक हाथ लंबे 

कुल्हाड़ी से टुकड़े करवाए 

दो बल्लियों को समानांतर रखा 

टुकड़ों को उनपर आड़ा रखकर 

ठोक दिया सिलबट्टे से 

कील के बड़े भाई कीले को 

एक -एक हाथ के अंतर से 

मढ़ा की भीत से सटाकर 

उपयुक्त कोण पर रखी गई सीढ़ी 

बचपन में सीढ़ी पर चढ़कर 

मढ़ा की छत पर पहुँचने का रोमांच 

ज़ेहन में  अब तक कुलाँचें भर रहा है 

नई पीढ़ी के लिए सीढ़ी के अनेक विकल्प मौजूद हैं 

आड़ी-तिरछी ऊर्ध्वगामी-अधोगामी 

सीधी-घुमावदार या फोल्डेबल सीढ़ी 

वास्तुशिल्प के अनुरूप आदि-आदि वजूद हैं 

सफलता की सीढ़ी 

स्वर्ग की सीढ़ी 

सभ्यता की सीढ़ी 

फ़ायर ब्रिगेड की सीढ़ी 

स्वचालित सीढ़ी 

बिजली विभाग की सीढ़ी

भवन-मज़दूर की सीढ़ी 

दुकानदार की सीढ़ी 

कुएँ-बावड़ी की सीढ़ी 

पहाड़ों में बने खेत सीढ़ी 

सड़क का अतिक्रमण करती सीढ़ी 

लताओं-बल्लरियों का सहारा सीढ़ी 

पर्वतारोहियों की सीढ़ी 

सैनिकों की सीढ़ी 

बाढ़ में बने सैनिक सीढ़ी

हवाई जहाज़ की सीढ़ी 

हेलीकॉप्टर से लटकती सीढ़ी

चोरों-आतंकवादियों की सीढ़ी

सब सीढ़ियों में श्रेष्ठ रही 

दिल में उतरनेवाली सीढ़ी 

ख़ुद में झाँकने को बननेवाली काल्पनिक सीढ़ी

जो बनी जान बचानेवाली सीढ़ी। 

 © रवीन्द्र सिंह यादव



रविवार, 20 दिसंबर 2020

किसान आंदोलन


रबी फ़सल कातिक में बो आए हो

हक माँगने दिल्ली की सीमा पर आए हो

अगहन गुज़र गया धीरे-धीरे 

सतह पा गए बीज सभी कारे-पीरे 

धरती ने ओढ़ा दुकूल हरियाला 

फ़सल माँगे पानी भर-भर नाला

बिजूका कब तक करे अकेला रखवाली 

चरे आवारा मवेशी जहाँ न किसान न माली

क्यारी-क्यारी की करुण अनुगूँज सुनो 

मिलजुलकर फ़सल खड़ी-बड़ी करो

श्रम-उत्पादन ख़ून-पसीना सब किसान के पाले में 

दाम मुनाफ़ा और तरक़्क़ी जा पहुँचे किसके पाले में?

पूस की रातें बड़ी कठिन हैं कृशकाय निरीह किसान कीं 

चर्चा अब फैली है गली-गली क्रूर-निष्ठुर सरकारी ईमान की

 एकता एक दिन करती है झुकने को मजबूर

मज़बूत इरादों के आगे होगा दंभ सत्ता का चूर

माघ मास में फिर फ़सलें माँगेंगीं पानी 

संभव है हो जाए क़ुदरत की मेहरबानी

पकने लग जाएँगीं फ़सलें फागुन आते-आते 

ले आना नया अनाज मंडी में चैत-बैसाख जाते-जाते

मत भूलना शहीद हुए जो साथी संघर्षों की राहों में 

वो सुबह भी आएगी जब ख़ुशियाँ झूलेंगीं अपनी बाहों में 

आंदोलन की राहें भले अब और कठिन हो जाएँगीं 

सत्ता के आगे ख़ुद्दार आँखें दया की भीख नहीं माँगेंगीं।

© रवीन्द्र सिंह यादव

शनिवार, 12 दिसंबर 2020

विरह वेदना

 नाविक नैया खेते-खेते 

तुम चले गए उस पार 

बाट तुम्हारी हेरे-हेरे 

थके नयन गए हार

बादल ठहरे होंगे कहीं 

कहे क्षितिज की रेखा 

संध्या का सफ़र शुरू होगा 

हो न सकेगा अनदेखा

नदी शांत है आ जाओ 

होगा मटमैला पानी

सांध्य-दीप साथ जलाना 

होगी परिपूर्ण कहानी। 

© रवीन्द्र सिंह यादव 

रविवार, 22 नवंबर 2020

अपना-अपना आसमान



पसीने से लथपथ 

बूढ़ा लकड़हारा 

पेड़ काट रहा है

शजर की शाख़ पर 

तार-तार होता 

अपना नशेमन 

अपलक छलछलाई आँखों से 

निहार रही है

एक गौरैया

अंतिम तिनका 

छिन्न-भिन्न होकर गिरने तक 

किसी चमत्कार की प्रतीक्षा में 

विकट चहचहाती रही 

न संगी-साथी आए 

न लकड़हारे को थकन सताए 

चरचराती धवनि के साथ 

ख़ामोश जंगल में 

अनेक पीढ़ियों का साक्षी

कर्णप्रिय कलरव का आकांक्षी

एक विशालकाय पेड़ 

धम्म ध्वनि के साथ धराशायी हुआ 

और बेबस चिड़िया का 

नए ठिकाने की ओर उड़ जाना हुआ। 

© रवीन्द्र सिंह यादव   

रविवार, 8 नवंबर 2020

चुल्लूभर पानी

 तुम्हारे लिए 

कोई 

चुल्लूभर पानी 

लिए खड़ा है 

शर्म हो 

तो डूब मरो... 

नहीं तो 

अपनी गिरेबाँ में 

बार-बार झाँको 

ज़रा सोचो!

तुम्हारी करतूत 

इतिहास का 

कौनसा अध्याय 

लिख चुकी है?

पीढ़ियाँ 

जवाब देते-देते ऊब जाएँगीं।

© रवीन्द्र सिंह यादव

गुरुवार, 8 अक्तूबर 2020

दो लहरों के बीच

 सोती नदी में 

एक लहर उठी 

किनारे पर आकर 

रेत पर एक नाम लिखकर थम गई 

दूसरी लहर 

किनारे से मिलने चली 

रेत पर लिखा नाम 

न कर सका और विश्राम

पहली लहर के कलात्मक श्रम को पानी में मिला दिया। 

© रवीन्द्र सिंह यादव

गुरुवार, 1 अक्तूबर 2020

पागल कहते हैं लोग

ज़माना 

बहुत बुरा है 

कहते हुए 

सुने जाते हैं लोग 

मझदार से निकालकर 

किनारे पर कश्ती डुबोना

ऐसा तो नहीं चाहते हैं लोग 

दरीचों के सीनों में 

दफ़्न हैं राज़ कितने 

आहिस्ता-आहिस्ता 

बताते हैं लोग 

दास्तान-ए-हसरत 

मुसाफ़िर कब सुनाते हैं 

गले लगाने से पहले 

आजमाते हैं लोग

बिजलियाँ अक्सर 

गिरती रहतीं हैं 

फिर भी आशियाना 

बनाते हैं लोग

वो माँगता फिर रहा है 

औरों के लिए दुआ 

न जाने क्यों उसे 

पागल कहते हैं लोग। 

© रवीन्द्र सिंह यादव 

 

बुधवार, 30 सितंबर 2020

तुम मूर्ख और अहंकारी हो

आग धधक रही है 

दिखलाई नहीं देती 

परिवेश में रह-रहकर गूँजती 

दर्दनाक चीख़ 

सुनाई नहीं देती 

लगता है तुम

संवेदना की फ़सल 

चट कर गए हो

तुम ज़िंदा हो 

लेकिन मर गए हो  

मुरझाए मुर्दा-से समाज का 

क्या कसूर 

सरकारों से कौन कहे

कि तुम मूर्ख और अहंकारी हो

है यह कवि का दस्तूर।   

© रवीन्द्र सिंह यादव


सोमवार, 28 सितंबर 2020

लता पतन का मार्ग नहीं चुनती

लता को 
बल्ली का 
सहारा न मिले 
तो वह क्या करती है?
अध्यापक ने छात्रों से पूछा
छात्रों को कुछ न सूझा 
तो एक छात्रा बोली-
मेरी बात नहीं है ठिठोली
कोई बल्ली का सहारा न दे 
तो भी लता 
पतन का मार्ग नहीं चुनती
कुछ दूर रेंगकर
चढ़ जाती है
किसी झाड़ / पेड़ पर
नाज़ुक सर्पिल तंतुओं से 
बना लेती है गठबंधन 
ताकि उसके फल
आसमान में झूल सकें  
जीवों को दिखाई दें
गंदगी से ऊपर रहें
और कृतज्ञ जीव 
लता की परवरिश का मन बनाएँ 
उसके लिए बल्ली-सा संबल बनाएँ 
बैठ जाओ भावी कवयित्री 
अध्यापक ने गंभीर होकर कहा। 
© रवीन्द्र सिंह यादव

रविवार, 27 सितंबर 2020

घुटन का दरिया

 कुछ लोग इसे 

उजाला कह रह हैं 

शायद उन्होंने 

उजाले की परिभाषा 

बरबस बदल दी है 

मुझे तो स्याह तमस में 

बस जुगनुओं की 

दीवानगी नज़र आती है

न्याय जब पहले से तय हो 

तो अर्जित कमाई 

बीवी के ज़ेवर 

बच्चों की ख़ुशियाँ और समय  

खोना क्यों ?

चुना जब कंटकाकीर्ण पथ 

तो ज़ख़्मों पर रोना क्यों?

घुटन का दरिया 

अकुलाहट का तूफ़ान 

प्रतीक्षा के दामन में 

घड़ियाँ गिन रहा है

शबनम में नहाई दूब पर 

बेधड़क चलने का हक 

किसी का छिन रहा है। 

© रवीन्द्र सिंह यादव


रविवार, 20 सितंबर 2020

दो पल विश्राम के लिए


 छतनार वृक्ष की छाया में 

 दो पल सुस्ताने का मन है

वक़्त गुज़रने की चिंता में 

अनवरत चलने का वज़्न है

कभी बहती कभी थमती है बड़ी मनमौजन है पुरवाई 

किसी को कब समझ आई अरे यह तो बड़ी है हरजाई

बहती नदिया थम-सी गई लगती है 

श्वेत बादल सृजन श्रृंगार के लिए ठिठके हैं 

जल-दर्पण में मधुर मुस्कान का जादू नयनाभिराम

पुरवाई फिर बही सरसराती 

अनमने शजर की उनींदी शाख़ का 

एक सूखा पत्ता 

गिरा नदिया के पानी में

बेचारा अभागा अनाथ हो गया

पलभर में दृश्य बिखरा हुआ पाया

जल ने ख़ुद को हलचलभरा पाया

बीच भँवर का क़िस्सा कहे कौन 

किनारा-किनारा कभी मिल न पाया  

लहरों का अस्तित्त्व साहिल पर 

हो आश्रयविहीन विलीन हो गया

सदियों से प्यासा है तट नदिया का 

पर्णविहीन जवासा 

कलरव नाद में लवलीन हो गया      

शुभ्र वर्ण बादल का श्रृंगार हो पाया न हो पाया!

मैंने ख़ुद को सफ़र में चलते हुए पाया।

© रवीन्द्र सिंह यादव 

मंगलवार, 1 सितंबर 2020

मधु,मानव और मधुमक्खियाँ

परागरहित चंपा पुष्प

उपेक्षित भाव की 


पीड़ा से गुज़रता है

जब मधुमक्खियाँ

उससे किनारा कर जातीं हैं

पराग चूसने

नीम के फूलों तक चलीं जातीं हैं

पराग देकर

फूल खिल जाते हैं

फूल होने पर इठलाते हैं

मानव-ज़ात को

शहद का छत्ता देकर

मधुमक्खियाँ 


अतिशय आनंद से 

आप्लावित हो चहकतीं हैं

वे आशान्वित रहतीं हैं

वे जानतीं हैं

उनका श्रम-ज्ञान ज़ाया नहीं होगा

अनेक फूलों से 


संग्रहित हुए पराग से 

निर्मित निर्मल मधु

उस मानव में बसी 


कलुषता मिटाएगा

जो मानव-मानव में भेद करता है

किसी न किसी फूल का पावन पराग

उसकी जिव्हा से मस्तिष्क तक


ह्रदय से रग-रग तक

पवित्र विचारों की

मिठास घोलेगा


मन-बुद्धि-संस्कार के 

सँकरे रास्ते खोलेगा

और वह एक दिन

प्रकृति को धन्यवाद बोलेगा। 


© रवीन्द्र सिंह यादव 

सोमवार, 24 अगस्त 2020

किताब-ए-वक़्त

किताब-ए-वक़्त में

क्या-क्या

और लिखा जाने वाला है

किसी को ख़बर नहीं

कुछ नक़्शे बदल जाएँगे

अगर बचे

झुलसने से

चिड़ियों के घोंसले

रहेंगे वहीं के वहीं

ढोएगी मानवता

महत्त्वाकाँक्षी मस्तिष्कों की

कुंठित अराजकता

मनुष्य का

भौतिकता में

जकड़ा जाना

वक़्त का सच है

बुज़ुर्गों की उपेक्षा

मासूमों पर

क्रूरतम अत्याचार

संस्कारविहीन स्वेच्छाचारिता

समाज का सच है।

 ©रवीन्द्र सिंह यादव

शनिवार, 15 अगस्त 2020

स्वतंत्रता


चिड़िया को 

जब देखता हूँ 

तब स्वतंत्रता का 

अनायास 

स्मरण हो आता है

जब चाहे 

उड़ सकती है 

जहाँ चाहे जा सकती है

जब चाहे धूल में 

नृत्य कर सकती है 

अथवा पानी में 

नहा सकती है 

मनचाहा गीत 

गा सकती 

मुक्ताकाश में 

विचरण कर सकती है 

फिर सोचता हूँ 

वह भी कहाँ स्वतंत्र है

उत्तरदायित्वों के बंधन 

उस पर लदे हुए हैं 

उससे शक्तिशाली 

उसकी स्वतंत्रता 

हनन करने पर

अड़े हुए हैं

घोंसले में 

लौटने की 

पाबंदी है 

सोचिए 

वह स्वतंत्र है 

या बंदी है?

घोंसला बनाने

अंडे सेने

चुग्गा लाने की 

दौड़ जीतना 

चूजों को 

सक्षम बनाने

दुनिया की ऊँच-नीच से

सतर्क करना

अपनी संतति में 

जीवन के प्रति 

अनुराग भरना

अस्तित्त्व बनाए रखने के लिए 

पर्यावरण अनुकूल बनना 

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की 

परिभाषा गढ़ना

कलरव के लिए 

बस सुबह की वेला चुनना 

आत्मकेन्द्रित बंधनों में 

जकड़े रहना

फिर कैसे कहे चिड़िया 

कि वह स्व के तंत्र में 

स्वतंत्र है या परतंत्र?

समाज या सरकार को

जो रास आए

बस वही लिखना और बोलना 

अभी बाक़ी है 

स्वाधीनता को सच्चे अर्थों में तोलना

क्रांति का गीत 

दिमाग़ों में घुमड़ रहा है

कभी गूँजेगा पुरज़ोर 

आज़ादी की फ़ज़ा में

बिखरेगी ख़ुशबू 

उन फूलों से 

खिल सकेंगे जो 

वक़्त की रज़ा में!

© रवीन्द्र सिंह यादव      

गुरुवार, 30 जुलाई 2020

पृथ्वी और इंसान

पृथ्वी के नष्ट होने कीं 

भविष्यवाणियाँ 

अब तक 

निरर्थक साबित हुईं हैं 

2012 का फोबिया याद होगा

उसके बाद भी 

टीआरपी के लिए 

क्या-क्या कहकर

दिशाहीन मीडिया ने  

हिस्टीरिया उत्पन्न किया  

कुछ तो याद होगा... 

महान वैज्ञानिक 

स्टीफन हॉकिंस ने 

2017 में कहा था-

पृथ्वी अगले 600 वर्षों में

आग के गोले में तब्दील हो जाएगी 

जिसका कारण 

मानव की 

आक्रामकता ठहराई जाएगी 

जनसंख्या वृद्धि

ऊर्जा का अंधाधुंध प्रयोग 

ग्लोबल वार्मिंग 

मौसम और जलवायु परिवर्तन

न चाहते हुए मुख्य कारक बनेंगे 

इन पर छोड़ दिया 

दुनिया ने चिंतन 

स्टीफन तो 

ख़तरे की घंटी बजाकर 

किसी और दुनिया में चले गए 

इंसान ने अनसुनी की आवाज़ 

तो कोविड-19 महामारी लेकर 

करोना वायरस आ गया 

स्टीफंस की आवाज़ को 

प्रकृति ने सुना है 

या यह चीन की मानव निर्मित चाल है 

हम इस जंजाल में उलझ गए।  

© रवीन्द्र सिंह यादव

शुक्रवार, 24 जुलाई 2020

यह जो बरसात आई है

यह जो बरसात 

आई है

हर बार की तरह 

फिर इस बार

सुहानी तो बिल्कुल नहीं

कोढ़ में खुजली-सी

लग रही है इस बार

अभी बाढ़ से आई तबाही

है चर्चा में

कल सूखे की चर्चा होगी

अभी मरनेवालों की चर्चा है

कल 

फ़सल-भूखे की चर्चा होगी

करोना महामारी से 

जूझ रही दुनिया में

अब मौतों के आँकड़े

दबाए जा रहे हैं

वैक्सीन बनने के 

समाचार

कमाऊ मंशा से 

फैलाए जा रहे हैं

पीड़ित मानवता का 

दम घुट रहा है

कोई दोनों हाथों से 

दौलत समेट रहा है

कोई सरेआम लुट रहा है

सरकार-समाज

ज्ञान-विज्ञान

धर्म-ज्योतिष

तर्क-पाखंड 

न्याय-मज़लूम 

सामाजिक मूल्य-अवसरवादी मूल्यविहीन अमूल्य 

सभी वक़्त की कसौटी पर

अपनी-अपनी परीक्षा दे रहे हैं

फ़िलहाल

पावस ऋतु में  

साफ़ हवा में

आशंकित 

हम 

सांस ले रहे हैं।    

© रवीन्द्र सिंह यादव
   

मंगलवार, 14 जुलाई 2020

अनाड़ी नाविक

एक अनाड़ी नाविक

उतरा नदी में

इस यक़ीन के साथ

कि पार लग जाएगा

माहौल से बेपरवाह

मौसम के पैटर्न से अनभिज्ञ

मझधार तक पहुँचा

क्रुद्ध हवा ने

अचानक आकर

विश्वासघात किया

छूने लगी नीर नदी का

मनमानी ताक़त से

उठती-गिरती

तीव्र लहरों में

नाव का बैलेंस

डगमगा गया

अकेली नाव

दूर बहती दिखाई दी!

©रवीन्द्र सिंह यादव 

शनिवार, 11 जुलाई 2020

वह इतना कायर है कि प्रश्न से डर गया है

रटारटाया उत्तर

सुन-सुनकर

मन भर गया है

वह इतना कायर है

कि प्रश्न से डर गया है

खोखले आदर्शों की नींव

इतनी उथली

कि मंसूबों की इमारत

भरभराकर

ढह गई है

कोई भोंड़ा-सा उत्तर

सर्वथा अनापेक्षित है

क्योंकि प्रश्न

तीखे तो होते हैं 

कदाचित अनंत संभावनाओं के

जनक हैं

समाधान हैं

कारक हैं

किरदार हैं

प्रश्न खड़े किए जाते हैं

नैतिक नियंत्रण

लोक कल्याण

और न्याय के लिए

तो फिर पलायन कैसा

सामना करो!

हमें प्रश्न का उत्तर चाहिए

प्रतिप्रश्न नहीं। 

शुक्रवार, 3 जुलाई 2020

चींटियाँ

देख रहा हूँ चींटियों को

कतारबद्ध चलते हुए 

कुछ जातीं चींटियाँ 

कुछ आतीं चींटियाँ

सोच रहा हूँ 

कितनी दिमाग़दार हैं चींटियाँ

अपनी रानी की 

सेवादार / तीमारदार हैं चींटियाँ

विज्ञान-साहित्य ने 

इन्हें भी नाम दिया है

रानी और मज़दूर चींटियाँ

अफ़सोस!

यहाँ भी 

पूँजीवाद-सा भेदभाव!  

एकता-शक्ति का 

अनुपम उदाहरण हैं चींटियाँ

अंडा ले बिल से निकल पड़ें 

तो कारण हैं चींटियाँ

लगतीं हैं अब तो 

प्रवासी श्रमिकों-सीं चींटियाँ

किसी सियासी सरहद से 

बेख़बर रहतीं हैं चींटियाँ 

बड़े लक्ष्य 

हौसले से हासिल करने   

हाथ डालतीं हैं चींटियाँ

सतत प्रयत्नशील रहने का 

सबक़ सिखातीं हैं चींटियाँ।

 ©रवीन्द्र सिंह यादव      

शुक्रवार, 26 जून 2020

बाबा रामदेव जी के नाम खुला पत्र

बाबा रामदेव जी के नाम खुला पत्र

महोदय,

       समाचार माध्यमों से ज्ञात हुआ कि आपने करोना वायरस (Covid-19 ) से फैली महामारी का शत-प्रतिशत सफल इलाज खोज लिया है और 'कोरोनिल' नाम की दवा से सात दिन में बीमारी ठीक होने का दावा किया है।
भारत में दैवीय चमत्कारों में बड़ा विश्वास है तो क्या महामारी में इसका फ़ाएदा उठाना चाहिए? परंपरागत भारतीय चिकित्सा पद्यति आयुर्वेद में जनता के विश्वास को उपचार के बहाने व्यापार बनाने का आपका यह प्रयास घोर निंदनीय है। सर्वाधिक चिंता का विषय है कि दवा के आविष्कार का मानवीय बीमारियों के संदर्भ में दावा प्रस्तुत करने की स्थापित प्रक्रिया है जिसका आपने पालन नहीं किया है। ऐसा ही समाचारों में बताया जा रहा है। आपके दावे की जाँच के लिए सरकार ने कार्यदल नियुक्त कर दिया है।

       आपने स्वदेशी आंदोलन को लोकप्रिय बनाने में सराहनीय भूमिका निभाई है लेकिन 'कोरोनिल' नाम में स्वदेशी को क्यों भूल गए? 'कोरोनाश' भी एक अँग्रेज़ी-हिंदी मिश्रित नाम हो सकता था।
आपने अपना दावा नोबेल पुरस्कार समिति के समक्ष पेश क्यों नहीं किया? अगर आपको वहाँ से अनुशंसा मिल जाती तो आज दुनिया में भारत का नाम छा जाता और आपके प्रति दुनियाभर में पीड़ित मानवता श्रद्धा से भर जाती।

       सबसे बड़ी बात कि इस महामारी के संकटकाल में आपने अपनी दवा का दाम 600 रुपये तय किया। आप इसे निशुल्क उपलब्ध कराने पर विचार क्यों नहीं कर सके? आपका संस्थान आर्थिक रूप से दिन दूना रात चौगुना बढ़ रहा है तो फिर इतना लालच और उतावलापन क्यों?

        भारत से लेकर दुनियाभर में योग को लोकप्रिय बनाने में आपका योगदान अतुलनीय है किंतु आपका ध्यान योग से हटकर व्यापारी बनने पर टिक गया है जो भारतीय जीवन दर्शन में साधु-संन्यासियों की जीवन शैली (हानि-लाभ की गणना से परे) के मानदंडों से विपरीत जाता नज़र आता है। आपके द्वारा सत्ता का विरोध और समर्थन आपको एक साधु नहीं राजनीतिक व्यक्ति के रूप में चिह्नित करता है अतः आपकी विश्वसनीयता संदेहास्पद हो गई है।
       आपको पत्र लिखने का मक़सद सिर्फ़ यह बताना है कि मार्ग दिखानेवाला ही मार्ग भटक जाय तो अनुयायियों का क्या होगा? वे देश में किस प्रकार की संस्कृति का विकास करेंगे ? राष्ट्रवाद को मिथ्या राष्ट्रवाद की दिशा में कौन ले जा रहा है?

शेष फिर कभी।
सादर नमन।

भवदीय

रवीन्द्र सिंह यादव

 दिनांक 26 जून 2020          

गुरुवार, 25 जून 2020

इंसान को छोड़कर...

आम की फली हुईं 

अमराइयों में

कोयल का कुहू-कुहू स्वर 

आज भी 

उतना ही 

सुरीला सुनाई दे रहा है

मयूर भी 

अपने नृत्य की 

इंद्रधनुषी आभा से 

मन को मंत्रमुग्ध करता 

दिखाई दे रहा है

तितली-भंवरे 

मधुवन में 

अपने-अपने मंतव्य 

ढूँढ़ रहे हैं  

स्याह रात में 

झींगुर-मेंढक के स्वर 

गूँज रहे हैं 

जुगनू भी 

अँधेरे से लड़ते 

नज़र आ रहे हैं

उल्लू-चमगादड़ 

मुस्तैद मिशन पर 

रोज़ जा रहे हैं

रातरानी के सुमन 

मदमाती सुगंध 

बिखेर रहे हैं

मेंहदीं के झाड़ 

किसी की बाट हेर रहे हैं   

अंबर के आनन में 

मेघमालाएँ सज रहीं हैं  

कलियाँ-फूल और पत्तियाँ 

अपनी नियति के पथ पर 

सहज सज-धज रहीं हैं

पहली बारिश में  

नदी मटमैली होकर 

अपने तटबंधों को 

सचेत कर रही है

चंदा-सूरज की कालक्रम सूची

नियमित समय-पटल पर 

टंग रही है

हवा भी राहत की सांस लेकर 

मन रंग रही है  

एक इंसान है 

जो आशंकाओं से घिर गया है 

करोना-वायरस के मकड़जाल में 

फँस गया है

युवा-मन भविष्य की तस्वीर पर 

असमंजस से भर गया है 

अवसर की आस में 

थककर आक्रोश से भर गया है

कोई अपनी पगडंडियाँ बनाकर 

अनजान सफ़र पर चल पड़ा है

आत्मबल की पूँजी के सहारे

उतरना ही है अब मझदार में

कब तक चलेगा किनारे-किनारे? 

 © रवीन्द्र सिंह यादव

शनिवार, 20 जून 2020

मैं उसका पिता हूँ / लघुकथा

         पूरे ज़िले में विज्ञान की पढ़ाई के लिए ज़िला मुख्यालय में पुराने राजशाही महल की इमारत में एकमात्र सरकारी कॉलेज था। समीर शहर में रहकर पढ़ाई करने पिछले महीने ही गाँव से आया था। वह उस दिन पंद्रह मिनट पहले कॉलेज के लिए निकला था। उसे अपने दाएँ पैर के जूते की मरम्मत करवानी थी जिसकी नोंक पर सिलाई उधड़ रही थी। 
        लगभग चालीस की उम्र पार कर चुका सुखलाल ग्राहक की प्रतीक्षा में व्याकुल था। इस बीच एक सप्ताह पुराने अख़बार की हैडिंग पढ़ने की कोशिश कर रहा था। पढ़ने में समीर ने मदद की। हैडिंग थी-
"श्रीलंकाई नौसैनिक ने परेड का निरीक्षण करते हुए प्रधानमंत्री राजीव गाँधी पर बंदूक की बट से किया हमला!"
       दतिया के क़िला-तिराहे पर सड़क-किनारे उसके नन्हे-से कार्यस्थल पर जब समीर की साइकिल रुकी तो सुखलाल की आँखों में ग्राहक को देखकर चमक आ गई। समीर ने जूता उतारा और जेब से रुमाल निकालकर माथे का पसीना पोंछते हुए दाएँ पैर के अँगूठे से जूते के बीमार हिस्से की ओर इशारा करते हुए कहा-
"यहाँ मजबूत सिलाई करना।"
"मतलब?"
सुखलाल ने ग़ुस्से से समीर को देखा।
"आपको क्रोध क्यों आ रहा है?"
"कॉलेज जा रहे हो?"
"हाँ"
साइकिल में आगे हेंडिल पर लगे कैरियर पर चिपके स्टूडेंट-बैग को देखकर सुखलाल ने पूछा-
"किस क्लास में पढ़ते हो?"
"बी.एस-सी.प्रथम वर्ष।"
"तुम्हारा नाम?"
"समीर"
"राकेश को जानते हो?"
"हाँ, मेरी ही क्लास में है।"
"मैं उसका पिता हूँ, पढ़ाई में उसकी मदद करना। बहुत मुश्किल से उसे इस क्लास तक पहुँचाया है। ये दो रुपये उसे दे देना। पाँच मिनट पहले ग़ुस्सा होकर कॉलेज चला गया, जेब-ख़र्च माँग रहा था। कहना कि केंटीन से कुछ लेकर खा ले।"
सुखलाल ने आग्रहपूर्वक आद्रभाव से कहा। 
जूते की सिलाई पूरी हुई। तय दाम चुकाते हुए समीर ने मासूमियत से पूछा-
"आपने शुरू में मुझे ग़ुस्से से क्यों घूरा?"
"अपनी रोज़ी को कोई लज्जित होता हुआ नहीं देखता, आपका पैर के अँगूठे से इशारा करके बताना मुझे अच्छा नहीं लगा।"
"सॉरी अंकल।"
कहता हुआ समीर साइकिल के पैडल पर पाँव रखता है और गंभीर होकर स्वाभिमान-अभिमान, विश्वास-अविश्वास;रोज़ी के प्रति श्रेष्ठता का भाव आदि पर चिंतन करता हुआ कॉलेज पहुँच जाता है।

© रवीन्द्र सिंह यादव   
   

शुक्रवार, 12 जून 2020

करोना-काल में लाशें

जीते-जीते 

जीवन-शैली विकसित हुई 

शव को सम्मान 

मिलने की बात तय हुई 

आज करोना-काल में 

सघन या छितराई 

लाशों की भीड़ 

तलाश रही है 

अंत्येष्टि की गरिमा से भरा नीड़

भीड़ की भरमार में 

लकवाग्रस्त तंत्र 

भेज रहा है 

एक ही घर में 

एक ही व्यक्ति की 

दो-दो बार लाशें!

कोई भटक रहा है 

कई-कई दिन  

लेने अपनों की लाशें 

लाशों का हिसाब 

बार-बार बिगड़ रहा है 

कोई दफ़्तर-दफ़्तर 

एड़ियाँ रगड़ रहा है

कहीं दाह-क्रिया / दफ़नाने का 

उपेक्षित सरकारी रबैया

कहीं अविश्वास की नाव में  

बैठे हैं यात्री और खिबैया  

कचरा-गाड़ी पर शव...!

यह कैसा वक़्त का विप्लव!  

करोना-योद्धाओं का कैसा 

चिंतनीय विभव-पराभव

कुछ तो भर चुके हैं 

ग़ुस्से से लबालब

वर्जनीय-ग्रहणीय निर्देशों के बवंडर

बढ़ा रहे हैं रोज़-रोज़ संशय और डर

देख-सुन करोना महामारी का 

कसता शिकंजा     

हृदय कचोट रहा है

कोई निर्मम ऐसा भी है 

जो धन लूट-खसोट रहा है

दुनियाभर में लाशों की दुर्दशा के 

हृदयविदारक समाचार

कब तक देखेंगीं आँखें बार-बार?

एक अदृश्य दुश्मन से 

भयातुर है भीरु इंसानी दुनिया 

मास्क मुँह पर हाथों में दस्ताने

अनचीह्नी-सी हो गई है 

करोना-काल की दुनिया

बदली आब-ओ-हवा में 

नया रण-क्षेत्र हो गई है दुनिया।    

© रवीन्द्र सिंह यादव

मंगलवार, 9 जून 2020

डरे हुए लोग / लघुकथा



       
तफ़तीश-अफ़सर की टीम को देखकर सबने खिड़कियाँ-दरवाज़े बंद कर लिए। तरबूज़, ख़रबूज़ा,खीरा और ककड़ी आवाज़ लगाकर बेचता एक ठेलेवाला गया। अफ़सर ने सोचा अब तो शायद कोई कोई तो बाहर निकलेगा ही लेकिन कमाल का आंतरिक सामंजस्य है इन ख़ामोश मकानों में कि बच्चा तक बाहर नहीं निकला। 
अफ़सर कुछ देर इंतज़ार के बाद उस मकान के दाहिने पड़ोसी के दरवाज़े पर दस्तक देता है। 
बाहर आई स्त्री ने हिम्मत के साथ पूछा-
"कहिए..."
"आपके पड़ोस में औरत कैसे जली?
"मालूम नहीं।"
"कोई चीख़-पुकार नहीं सुनाई दी?
"बिल्कुल नहीं, कूलर चल रहे थे।"
अफ़सर ने अब बाईं ओर के पड़ोसी का दरवाज़ा खटखटाया। बाहर आई स्त्री ने चेहरे पर संशय के भाव लिए पूछा-
"कहिए इंस्पेक्टर साहब!"
 "आपके पड़ोस में औरत कैसे जली?
"कुछ पता नहीं, मैं अकेली रहती हूँ; नींद की दवा लेती हूँ।"

   "
समाज में तटस्थ लोगों की तादाद लगातार बढ़ रही है। क़ानून की मदद करने या पीड़ित को न्याय दिलानेवालों की लगातार कमी हो रही है। जब ख़ुद क़ानून के चंगुल में फँसते हैं तो कहते हैं
'मुझे अपनी न्याय-व्यवस्था में पूरा भरोसा है।' हक़ीक़त जानते सब हैं लेकिन लोग अपने तयशुदा ढर्रे पर ही चलना चाहते हैं। कौन झंझट मोल ले तो बस ख़ुद को न्यूट्रल दिखाओ..."
अपने अधीनस्थ अफ़सर से बुदबुदाता हुआ खिन्न तफ़तीश-अफ़सर अगले दरवाज़े की ओर अपने क़दम बढ़ाता है।    

©
रवीन्द्र सिंह यादव           


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