मंगलवार, 31 जनवरी 2017

ओस और मुनिया



जब

वातावरण में

समाहित  वाष्प  को

सिकोड़   देती  है  सतह  की  ठंडक,

तब

शबनम के दाने / ओस के मोती,

फूल-पत्तियों      पर      आसन     जमाते    हैं,

हमारे  मरने-मिटने  के  भय  को  लजाते   हैं।


मुनिया    समझदार    हुई,

पाँच    बसंत     पार    हुई,

बोली  एक   इतवार  को-

"पार्क  में  मैं  भी  चलूँगी,

कुलाँचें   मैं  भी  भरूँगी...!"


सवालों-जवाबों  के  बीच  पहुँचे  पार्क,

चमका   रही    थीं  ओस-कणों   को,

भोर      की     मनहर      रवीना,

ये  क़ुदरत  के आँसू   हैं  या  पसीना...?

कवितामयी / छोटे  मुँह   बड़ी  बात...!

सीधा  मन-मस्तिष्क  पर लुभावना आघात।


मैंने   कहा-

यह   ओस   है,

उसने कहा-

"ENGLISH  में   बताओ"

"DEW...!" -जवाब  मैंने  दिया,

इसे  तो  मेरे  टीचर  ने  वीडियो  में  दिखाया  था...

सुनकर  मेरे  सपनों  पर  ओस  पड़   गयी!

घर  आते-आते   सारी   ओस  झड़  गयी!!

©रवीन्द्र  सिंह यादव









मंगलवार, 24 जनवरी 2017

दोपहर बनकर अक्सर न आया करो

दोपहर   बनकर

अक्सर  न   आया   करो,

सुबह-शाम   भी

कभी  बन   जाया   करो।




चिलचिलाती   धूप    में

तपना   है दूर  तक,

कभी  शीतल  चाँदनी

में  भी  नहाया  करो।

सुबह-शाम   भी

कभी  बन   जाया   करो।



सुबकता है  दिल

यादों  के  लम्बे  सफ़र  में,

कभी  ढलते  आँसू

रोकने  आ  जाया  करो।

सुबह-शाम   भी

कभी  बन   जाया   करो।




बदलती   है   पल-पल

चंचल   ज़िन्दगानी,

हमें  भी  दुःख-सुख  में

अपने  बुलाया  करो।

सुबह-शाम   भी

कभी  बन   जाया   करो।



दरिया    का   पानी

हो  जाय   न   मटमैला,

झाड़न   दुखों   की धारा  में

यों   न    बहाया    करो।

सुबह-शाम   भी

कभी  बन   जाया   करो।
#रवीन्द्र  सिंह  यादव 

सोमवार, 23 जनवरी 2017

नेताजी सुभाष चंद्र बोस

(23  जनवरी  जन्मदिन  पर  स्मरण )
 

भारत में एक सव्यसाची फिर आया,  

48 वर्ष सुभाष बनकर जिया,  

जीवट की नई कसौटी स्थापित कर,  

रहस्यमयी यात्रा पर चल दिया,

जल्दी में था भारत माता का लाल, 

बिलखता दिल हमारा भावों से भर दिया।  


"तुम मुझे ख़ून दो, मैं तुम्हें आज़ादी दूँगा" 

"दिल्ली  चलो" 

"जय हिन्द"  

नारे दिए सुभाष ने, 

जाग उठी थी तरुणाई  

उभारे बलिदानी रंग प्रभाष ने।  


भारतीयों के सरताज,   

युवा ह्रदय-सम्राट, 

सुभाष बेचैन थे,  

देखकर हमारी 

अँग्रेज़ों का दमन सहने की परिपाटी,  

बो दिए वो बीज,  

महकने / उगलने लगी 

क्रांति-क्रांति देश की माटी। 


आज़ाद हिंद फ़ौज बनी,  

अँग्रेज़ों से जमकर ठनी,  

1943  से 1945  तक,

देश की पहली आज़ाद हिंद सरकार बनी,  

छूटा साथ घायल जापान का,  

मिशन की बड़ी ताक़त छिनी,   

18 अगस्त 1945 को,  

ताइपे विमान-दुर्घटना 

हर भारतवासी का दुःख-दर्द बनी...(?) 


नेताजी की मृत्यु का रहस्य,  

आज भी एक अबूझ पहेली है,  

गोपनीय फ़ाइलें खुल रहीं हैं,  

बता दे राज़ सारे 

क्या कोई फ़ाइल अकेली है...?


दुनिया विश्वास न कर सकी,

सुभाष के परलोक जाने का,

अपनी ही सरकारें करतीं रहीं जासूसी,

भय था जिन्हें सुभाष के प्रकट हो जाने का,

सार्वकालिक व्यक्तित्त्व दमकता ध्रुव-सत्य है,

कौन बनेगा अब सुभाष...?

पूछता खड़ा सामने कटु-सत्य है।


हमारे दिलों पर राज़ करते हैं सुभाष,

समय की प्रेरणा बनकर,

भाव-विह्वल है हमारा दिल,

तुम्हें याद करके आँखों का दरिया,

बह चला है आँसू बनकर।


स्वतंत्र होकर जीने का अर्थ,

सिखा गए सुभाष,

आज़ादी को कलेजे से लगाना,

सिखा गए सुभाष। 

 
स्वतंत्रता का मर्म वह क्या जाने,  

जो स्वतंत्र वातावरण में खेला है,  

उस पीढ़ी से कभी पूछो! 

जिसने पराधीनता का असहय दर्द झेला है!! 

जय हिन्द !!!

                         © रवीन्द्र सिंह यादव                          

सोमवार, 16 जनवरी 2017

मैं वर्तमान की बेटी हूँ



बीसवीं  सदी  में,

प्रेमचंद  की  निर्मला  थी   बेटी,

इक्कीसवीं  सदी   में,

नयना  / गुड़िया  या  निर्भया,

बन  चुकी   है   बेटी।


कुछ  नाम  याद   होंगे  आपको,

वैदिक  साहित्य   की  बेटियों  के-

सीता, सावित्री, अनुसुइया, उर्मिला ;

अहिल्या,     शबरी,    शकुंतला,

 गार्गी, मैत्रेयी, द्रौपदी या  राधा।


इतिहास  में

यशोधरा,  मीरा, रज़िया  या  लक्ष्मीबाई

साहित्य  में

सुभद्रा, महादेवी, शिवानी, इस्मत, अमृता,

 कृष्णा,  अरुंधति    या     महाश्वेता

  के   नाम  भी  याद  होंगे।


आज  चहुँओर   चर्चित  हैं-

सायना, सिंधु, साक्षी, सानिया ;

जहाँ    क़दम   रखती   हैं ,

छोड़   देती   हैं  निशानियाँ ।


घूँघट  से  निकलकर,

लड़ाकू-पायलट  बन  गयी  है  बेटी,

सायकिल  क्या  रेल-चालिका  भी  बन  गयी  है  बेटी,

अँतरिक्ष  हो  या  अंटार्टिका,

सागर   हो  या  हिमालय,

हो  मंगल  मिशन

या हो चुनौती भीषण,

अपना  परचम   लहरा   चुकी   है  बेटी,

क़लम   से   लेकर  तलवार  तक  उठा  चुकी  है  बेटी,

फिर   भी   सामाजिक  वर्जनाओं  की  बेड़ियों  में जकड़ी  है बेटी।


सृष्टि   की   सौन्दर्यवान   कृति  को,

परिवेश   दे  रहा   आघात   के   अमिट  चिह्न,

कौतुहलमिश्रित  वेदना   की  अनुभूति   से,

सजल   हैं    बेटी   के   सुकोमल   नयन,

हतप्रभ   है-

देख-सुन  समाज  की  सोच   का  चयन।



उलझा  हुआ   है  ज़माना,

अव्यक्त   पूर्वाग्रहों   में,

बेटी  के   माँ -बाप   को  डराते   हैं -

पुरुष   के  पाशविक, वहशी  अत्याचार ,

कुदृष्टि   में   निहित    अँधकार,

दहेज  से  लिपटे  समाज  के  कदाचार,

क़ानून  के  रखवाले   होते   लाचार ,

चरित्र-निर्माण  के  सूत्र   होते  बँटाधार,

भौतिकता   का   क्रूरतर   अम्बार।



बेटी   ख़ुद   को  कोसती   है,

विद्रोह   का  सोचती    है,

पुरुष-सत्ता  से  संचालित  संवेदनाविहीन  समाज  की,

विसंगतियों  के   मकड़जाल  से   हारकर,

अब  न लिखेगी   बेटी -

"अगले  जनम  मोहे   बिटिया  न  कीजो,

  मोहे    किसी    कुपात्र     को   न  दीजो।"


लज्जा, मर्यादा, संस्कार  की  बेड़ियाँ,

बंधन-भाव    की  नाज़ुक   कड़ियाँ,

अब  तोड़   दूँगी   मैं,

बहती   धारा   मोड़  दूँगी   मैं,

मूल्यों  की  नई  इबारत  रच  डालूँगी  मैं,

माँ   के  चरणों   में  आकाश   झुका   दूँगी ,

पिता   का  सर  फ़ख़्र   से  ऊँचा  उठा  दूँगी,

मुझे  जीने   दो   संसार   में,

अपनों  के  प्यार-दुलार  में,

मैं   बेटी   हूँ   वर्तमान   की!

मैं  बेटी   हूँ   हिंदुस्तान   की!!

 © रवीन्द्र सिंह यादव 


बुधवार, 11 जनवरी 2017

सैनिक की जली हुई रोटियाँ



सैनिक  ने

अंतर्जाल  पर   वीडियो  अपलोड  कर,

दिखाई  जली  हुईं   रोटियाँ,

सीमा  सुरक्षा  बल  ने  जाँच  कर  खंडन  किया।



सैनिक!

आप   नहीं  जानते,

आपकी   दिखाई

 अधजली   रोटी  ग्लोबल  ट्रेंड  बन  गयी।



हमने  तो  सिर्फ़

अपना  मन  मसोस  लिया,

ख़ुद  को  तिलमिला  लिया,

राष्ट्रीय-सुरक्षा   के  गंभीर  सवालों  से,

ख़ुद   को  खदबदा  लिया।


लेकिन........

जो-

 हमारी  राष्ट्रीय  एकता  और  अखंडता  के  लिए  ख़तरे   हैं,

उनकी   बाँछें     तो   खिल  गयी  होगीं,

अधजली   रोटी  खाने  वाली  सेना  को

दुश्मन   क्या  समझेगा ..?




सैनिक!

हमारी  चैन  की  नींद  न  उड़ाओ,

जो  मिले  वही  खाओ,

स्वदेश   के  लिए  क्या  कुछ  नहीं  सहना  पड़ता  है,

श्रम, लहू   के    साथ   यौवन    भी  वारना  पड़ता   है।



शिकायत-

 ईर्ष्या ,आक्रोश, बदलाभाव 

और  खलबली  पैदा  करती   है,

दुश्मन   को  रणनीति   का  इशारा   करती   है,

सब्र  रखो......

विमूढ़ता   और  विवेक   में  फ़र्क   रखो।




सर-ज़मीं   क़ुर्बानी    माँगती    है,

सैनिक   के   ख़ून    में  रवानी   माँगती  है,

दूसरों   का  हक़   मारने   वाले   बेनक़ाब   होंगे!

हम  बुलंद  हौसलों   के  साथ    क़ामयाब    होंगे!!

जय  हिन्द!!!

@रवीन्द्र सिंह यादव



मंगलवार, 10 जनवरी 2017

फूल से नाराज़ होकर तितली सो गयी है



फूल   से  नाराज़   होकर

तितली    सो      गयी     है,

बंद   कमरों   की  अब

ऐसी  हालत   हो   गयी   है।.........(1 )




हो   चला   सयाना    फूल  

ज़माने   के    साथ-साथ ,

मुरझाई    हैं    पाँखें  

महक   भी    रो    गयी  है।

बंद   कमरों   की  अब

ऐसी  हालत   हो   गयी   है।.........(2  )





नसीहत  अब  कोई

हलक़   से  नीचे  जाती   नहीं,

दिल्लगी   की   प्यारी  खनक

अब   हमसे   खो  गयी   है।

बंद   कमरों   की  अब

ऐसी  हालत   हो   गयी   है।.........(3  )





आशियाँ    दिलक़श   बने

जो    तेरी   शोख़ियाँ  हों,

ताज़ा  हवा  आँगन  में

बीज-ए -ख़ुलूस  बो  गयी  है।

बंद   कमरों   की  अब

ऐसी  हालत   हो   गयी   है।.........(4 )





यादों   के   आग़ोश   में

बैठा   हुआ  है  बोझिल  दिल,

एक   मुलाक़ात  मैल  मन  का

मनभर   धो     गयी    है।

बंद   कमरों   की  अब

ऐसी  हालत   हो   गयी   है।.........(5 )


 @रवीन्द्र  सिंह  यादव






शुक्रवार, 6 जनवरी 2017

दूब


तूफ़ान  आएंगे,

सैलाब     आएंगे,

उखाड़ेंगे,

उड़ा ले जायेंगे 
  
उन्नत , उद्दंड    दरख़्तों    को।



दूब    मुस्कायेगी,

अपनी  लघुता / विनम्रता  पर ,

पृथ्वी    पर    पड़े-पड़े   पसरने    पर।



छाँव     न   भी  दे    सके    तो   क्या,

घात-प्रतिघात    की,

रेतीली     पगडंडी    पर,

घाम  की   तीव्र तपिश  से,

तपे     पीड़ा     के    पाँव,

मुझपर     विश्राम     पाएंगे,

दूब  को  दुलार  से  सहलायेंगे।

@रवीन्द्र  सिंह यादव    

नैसर्गिकता



सभ्यता    के    सशंकित    सागर    में,

नत-नयन    नैसर्गिकता    की     नाव,

डूबने      न    पाए,

सुदूर      है   किनारा      तो    क्या,

आज     मांझी    को,

सरलता  का  सुरीला  संगीत  सुनाओ,

आई   है  भौतिकता

शो-केस  बनकर ,

बज  रही  है  ढोलक

अक्खड़  स्वभाव  की  तनकर।



मृत्यु    का  भय   त्यागकर,

साहस, संयम और संतुलन  के,

पंख    पतवार    में   लगाओ,

बैठकर  नियति  की  गोद  में,

सोई   हुई   करुणा   जगाओ।  


लौट  आयेंगे

हमारे  खोये  अलंकरण,

खड़े  होकर

अपनी  छत  पर

दाना  चुगने  चिड़िया  को  बुलाओ।

@रवीन्द्र  सिंह  यादव    

सोमवार, 2 जनवरी 2017

पिता


समाचार  पढ़ा-


"बेटे  ने  सर्द  रात  में  बाप  को  घर  के  बाहर  सुला दिया " 


संवेदनाशून्य   होते   समाज  का

यह  सच

अब   किसी   आवरण   में  नहीं   ढका   है,

अंतर्मन  आज    सोच-सोचकर   थका    है,

अपनी   ही  लाश  ढोता  आदमी,

अभी   नहीं  थका   है।


हम   क्यों   भूल   जाते  हैं,

जीवन   में   पिता   का   अतुल्य   योगदान,

क्यों   विस्मरण   हुआ  यक्ष   का   प्रश्न,

और   युधिष्ठिर   का  उसे   दिया  उत्तर  ?


दुनिया   के   दस्तूर  हों

या  अपने  पैरों  पर   खड़े   होने  की   दक्षता,   

क्षमादान   हो  या   हारी-बीमारी,

सपनों    को   पंख    लगाने   की   ललक    हो

या     तुम्हारे   टूटकर    बिखरने   पर   संबल   देना,

पिता    ने   कब   अपनी    निष्ठुरता   दिखाई ???



जानते    हो....... !

              ठण्ड   की  अकड़न  और   ठिठुरन    क्या   होती   है ?  
               
किसी   ख़ानाबदोश    परिवार   को   देखो,

कैसे   सहअस्तित्व   की  परिभाषा   गढ़ते   हैं   वे,

सभ्य-सुसंस्कृत    समाज    को,

अपने    मूल्यों   के   सिक्कों  की    खनक / चमक   से,

चौंधियाते    रहते    हैं।

@रवीन्द्र  सिंह  यादव

रविवार, 1 जनवरी 2017

नव वर्ष 2017



Welcome  2017

Happy  New  Year

बीता  शताब्दी   का  सोलहवाँ   साल,

आ  गया   सदी   का  सत्रहवाँ   साल।


अब    छोड़ो   मन  के   मलाल,

आज    पूछो   सभी   का   हाल,

सब  हों  आबाद, रहें   खुशहाल,

हो मुबारक  सबको  नया  साल।


गत वर्ष   देश-दुनिया  में   तख़्त-ओ-ताज   बदले,

भारत   में   हज़ार    पाँच   सौ    के    नोट    बदले,

जो  मना रहे  होते  आज  परिवार  के साथ  जश्न,

वे   किसी और  दुनिया  में जाकर   बन गए   प्रश्न।  


बुज़ुर्ग   दे  गये    समय   नापने   का  तोहफ़ा,

समय    रुकता  नहीं   समझो   ये   फ़लसफ़ा* ।

जश्न   में   डूबी  रात    के   बाद,

उगता  है   प्राची*   में   सूरज     लेकर   नई   उमंगें,

उल्लास  से  भर  देती  हैं  गुनगुनी   धूप   की  तरंगें,

चलता  है  दिनभर  हाय   डियर  ....हैप्पी   न्यू   ईयर!

दीवार  पर  टाँग  दिया  जाता  है   एक   और  कलेण्डर !!

@रवीन्द्र  सिंह यादव



प्राची *  =  पूर्व  दिशा (East)

फ़लसफ़ा*  = दर्शन (Philosophy)

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