सोमवार, 24 जनवरी 2022

रिक्शेवाले

रिक्शेवालों को 

आलीशान बाज़ारों से 

दूर 

कर दिया गया है

झीने वस्त्र को 

लौह-तार से सिया गया है 

बहाना 

बड़ा ख़ूबसूरत है

वे 

पैदल चलनेवालों का भी 

स्थान 

घेर लेते हैं

सच तो यह है 

कि 

वे 

अवरोधों से आक्रांत ग़रीब 

मख़मल में टाट का पैबंद नज़र आते हैं

मशीनें 

मानवश्रम का 

मान घटाती ही चली जा रही हैं 

रोज़गार के अवसरों पर 

कुटिल कैंचियाँ  

चलती ही चली जा रही हैं 

भव्यता का 

क़ाइल हुआ समाज 

वैचारिक दरिद्रता ओढ़ रहा है 

संवेदना को 

परे रख 

ख़ुद को 

रोबॉटिक जीवन की ओर मोड़ रहा है।  

© रवीन्द्र सिंह यादव       



शनिवार, 1 जनवरी 2022

अमन का गीत मेरा खो गया है...

अमन का गीत 

मेरा खो गया है

देश का युवा चेहरा

पर कटे पंछी-सा  

गर्दिश में खो गया है

वो फ़ाख़्ता 

जो गुलिस्तां में 

ग़म-ख़ोर गीत गाती है 

उसका गला 

अब तो रुँध-रुँधकर 

थर्राकर भर्रा गया है

वो चित्रकार 

रंग, कूची; कल्पना के साथ 

बस बेबस खड़ा है 

हालात के नारों को 

सुन-सुनकर घबरा गया है

वाणी पर नियंत्रण 

क़लम पर पाबंदी 

मतभिन्नता की आज़ादी

अभिव्यक्ति के आयाम

सत्ता से तीखे सवाल पर 

लेखक का वजूद चरमरा गया

गाँधी की हत्या से 

सब्र नहीं जिन्हें 

वे अब रोज़-रोज़ 

चरित्रहत्या कर रहे हैं

यह कौन है 

जो शांत माहौल में

उकसावे का परचम लहरा गया?

© रवीन्द्र सिंह यादव       


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