शुक्रवार, 17 जनवरी 2020

विभाजित पिपासा


तिल-तिल मिटना जीवन का,

विराम स्मृति-खंडहर में मन का। 

व्यथित किया ताप ने 

ह्रदय को सीमा तक,

वेदना उभरी कराहकर

रीती गगरी सब्र की अचानक। 


अज्ञात अभिशाप आतुर हुआ

बाँहें पसारे सीमाहीन क्षितिज पर 

आकुल आवेश में अभिसार को 

चिर-तृप्ति का कलनिनाद 

अभिराम अनुरंजित विवशता से 

चाहती जर्जर वाणी वर। 


एकांत की चाह बलबती हुई 

अशांत मन घर से बाग़ तक ले गया,

हलचल ने ध्यान भंग किया 

दिनांत का मनोरम दृश्य  

सुदूर पहाड़ी तक जाने का 

स्पंदित साँसों को साहस दे गया।

पहाड़ी के सामने एक और पहाड़ी 

प्रांतर-भाग में मनोहारी हरीतिमा से

आच्छादित रमणीय गहरी खाई,

सामने पहाड़ी के वक्ष पर उभरा 

अति अरुणता से आप्लावित कैनवास 

शनैः-शनैः आयी अजानी सुरभित 

बेसुध बयार आँचल-सी सरसराती हुई।


आहिस्ता-आहिस्ता ह्रदय नुमूदार हुआ 

व्याकुल विशद विभाजित पिपासा 

सकल समवेत छायी कैनवास पर,

दृश्य-अदृश्य चेहरे अपने-अपने 

अति अलंकृत धनुष की प्रत्यंचा ताने

छोड़ रहे थे तीखे तेज़ नुकीले नफ़रतों के 

नीरव-निनादित तीर मासूम हृदय पर। 


किंचित गुमनाम चेहरे 

पर्याप्त फ़ासले पर खड़े थे 

हाथों में रंगीन सुवासित सुमन 

और शीतल मरहम लिये,

ह्रदय को बींधती तीखी चुभन 

सहते-सहते असहनीय हुई तो 

कविता से कहा- 

"समेट लो कैनवास रजनीगंधा-सा रहम लिये।"      

© रवीन्द्र सिंह यादव

     

शुक्रवार, 10 जनवरी 2020

उठ खड़ी होती है जिजीविषा


नाव डगमग डोली 

तो 

माँझी पर 

टिक गयीं 

आशंकित आशान्वित आँखें, 

कोहरा खा गया 

दिन का भी उजाला 

अनुरक्त हो भँवरे की 

प्रतीक्षा कर रहीं सुमन पाँखें। 


सड़क-पुल के टेंडर 

अभी बाक़ी हैं 

कुछ अनजाने इलाक़ों में 

बहती नदियों और पगडंडियों के, 

अपने आदमी को 

मिले सरकारी सौग़ात 

इस तरह भँवर में 

अनवरत घूमते सोपान प्रगति के।   


विकल है आज तो बेकल मन 

परिवेश में गूँजता 

चीत्कार का व्याकुल स्वर,

प्रभा-मंडल में यह कैसा नक़ली आलोक 

नीरव निशा की गोद में 

तनिक विश्राम करके 

उठ खड़ी होती है जिजीविषा 

अनायास सिहरन का उन्मोचन कर।  

© रवीन्द्र सिंह यादव

शुक्रवार, 3 जनवरी 2020

रथ पर विहान के हो सवार












सुबकती रात 

सह रही

कुछ ज़्यादा है 

घनेरा अँधेरा इस बार,

चिरप्रतीक्षित राहत 

आयेगी ज़रूर

रथ पर विहान के हो सवार।



सहमी हैं

शजर पर

सहस्स्रों सुकोमल पत्तियाँ, 

सोचते हैं

मुरझाएँगे

खिलने से पहले

गुँचे, गुल और कलियाँ।



मुँह फेरकर

उदास चाँद ने ओढ़ ली है

कुहाँसे की घनी चादर,

ख़ामोश हैं

बुलबुल, तितली, भँवरे

पूस की रात में झरता

फाहे-सा नाज़ुक हिम-तुषार। 

© रवीन्द्र सिंह यादव

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