गुरुवार, 30 अप्रैल 2020

आशा कभी नहीं मरती

आशा जन्म लेती है स्वप्निल स्वर्णिम सुखी आकाश-सा कैनवास लिए जुड़ जाती है नवजात के साथ जन्म से तीव्र हो उठती है किशोर वय में युवाओं में चहकती है / फुदकती है सुरमई लय में न जलती है न दफ़्न होती है बुढ़ापे की अंतिम सांस के स्थिर होने पर कमज़ोर नहीं पड़ती जाऱ-ज़ार रोने पर सुखकारी परिवर्तन की आशा कभी नहीं मरती इंसान में भटकाव के भंवर से उबरने की आशा कभी नहीं मरती आशा बनी रहेगी बेहतर संसार के लिए फूल खिलते रहेंगे भंवरों-तितलियों के अनंत अतुलित प्यार के लिए।
©रवीन्द्र सिंह यादव  

मंगलवार, 28 अप्रैल 2020

लॉक डाउन में दादी का प्रश्न

दादी दबी आकांक्षाएँ लिए

पेशानी पर तेवर लिए

बेकसी का दौर 

चेहरे पर लिए

  बूढ़ी आँखों में   

प्रश्न-ख़ंजर लिए

पूछती पोती से

पैंतीसवें दिन

लॉक डाउन

कब ख़त्म होगा?

अपने गाँव जाना है

अपनों के बीच मरना है

बची सांसें ओसारे में पूरी करनी हैं

शहरी घुटन में क्या उम्र पूरी करनी है?

अजीब शहर है 

न धूप खुली 

न हवा खुली 

न खुला मन 

मोबाइल में व्यस्त 

अबाल-वृद्धजन  

दिखती ज़िंदा हूँ

मरी-सी हूँ!

समझी...! 

©रवीन्द्र सिंह यादव    

टीवी पर समाचार

विदूषक / मसख़रे / जोकर की कल्पना 

मनोरंजन के लिए

हँसकर व्यंग्य की सचाई 

स्वीकारने

भटकी सोच को 

मानवीय बनाने  

हमने की 

कला-साहित्य / लोक-संस्कृति में

कँटीली / पथरीली ज़मीन पर 

हमें हँसने-हँसाने की

चपल चुनौती दी 

किनारे पर 

उथले पानी में 

तैरने का कोई अभिनय करे

तब आप क्या करेंगे?

टीवी पर समाचार

एंकर / एंकरनियों को  

दाँत पीसते हुए 


देखा करेंगे!

© रवीन्द्र सिंह यादव    

सोमवार, 27 अप्रैल 2020

कसाईघर

कसाईघर / कसाई-ख़ाने से 

करोना-काल में 

निरीह पशुओं की 

बेबस चीख़ 

अब शांत शून्य में 

नहीं गूँजती होगी

नाली की ग़ाएब लाली 

अर्थ ढूँढ़ती होगी  

मांसाहार के लिए 

दुकानों में सजाकर रखे

पशु-पक्षी / जानवर 

कुछ दिन और सुरक्षित हैं

मनुष्य द्वारा 

लायसेंसशुदा 

मौत का फंदा 

कसने की क्रिया-प्रक्रिया  

अभी अक्रिय है 

हाँ,लॉक डाउन में

कुछ पराधीन परवश जीव 

भूख / बीमारी से

दुनिया छोड़ गए होंगे।  

© रवीन्द्र सिंह यादव 

रविवार, 26 अप्रैल 2020

फ़सल और बारिश

यह घनघोर घटा

काली-काली

मुझे नहीं लगी

कतई निराली

करोना-काल में

आफ़त की क्या कमी थी 

जो फ़सल बर्बाद करने 

असमय बारिश भी आ गई

आसमान में लपलपाती 

मेघप्रिया सौदामिनी

खलिहान जलाती  

गूँजती भरपूर  

डरावनी गड़गड़ाहट

किसान के दुश्मन

सरकारी फ़रमान  

हुआ करते  

अरे बादल तुम तो 

थोड़ा संयम धरते। 


© रवीन्द्र सिंह यादव 

इतिहास

इतिहास पढ़ा 

ज़्यादातर ब्यौरा 

सत्ता के 

उत्थान और पतन का

सत्ता और संपत्ति के 

हस्तांतरण का 

अमीरों की जीवनशैली 

दर्शन,कलाप्रियता,क्रूरता 

और चरित्र के क़िस्से

सामाजिक राजनीतिक वातावरण के 

पुख़्ता दस्तावेज़ 

सभ्यता-संस्कृति के बीज-वृक्ष 

कुछ शासकों की नीतियाँ 

उत्पन्न करतीं खीझ 

बहुत कुछ 

दर्ज होने से छूट गया है 

ऐसा पुरखे बताते रहे  

समृद्ध इतिहास पर गर्व है 

यह तो पुरखों की की देन है 

हमारा किया-धरा 

भावी पीढ़ियाँ पढेंगीं

मजबूरन भुगतेंगीं  

सराहेंगीं या धिक्कारेंगीं 

वक़्त तय करेगा। 

© रवीन्द्र सिंह यादव 

शनिवार, 25 अप्रैल 2020

किनारे नदी के



वह देखो! 

सौंदर्यमयी स्रोतस्विनी 

उतर रही है

अल्हड़ चंचला-सी

पर्वत-श्रृंखला को 

छेड़ते श्वेत बादलों कीं 

अठखेलियों के बीच

प्रीत पगे प्रियदर्शन पर्वत से 

पावन अश्रुधारा-सी

उदधि में अवसान तक 

बसाती गई है 

किनारे-किनारे कालजयी सभ्यताएँ

मैदानों को करती गई है 

ख़ुशहाल आबाद 

फैलाए विस्तृत अयाचक बाहें 

विकास की सीढ़ियाँ 

भारी पड़तीं जा रहीं हैं  

नदी के नैसर्गिक किनारे 

जबरन सिकोड़तीं जा रहीं हैं

अपनी अभूतपूर्व दुर्दशा पर 

लज्जित है पराजित है 

कल-कल बहता उज्जवल नीर

पर्वत से कुछ दूर बहकर  

दुर्गंधयुक्त विषाक्त स्याह होकर

लाचार नाविक की 

किनारे बँधी नाव को  

मासूम नई पीढ़ी को 

नहीं समझा सकेगा कोई 

सदानीरा की पर्वत-सी पीर!   

©रवीन्द्र सिंह यादव  



शब्दार्थ- 

स्रोतस्विनी = नदी ( किसी स्रोत से निकली जलधारा )

अयाचक = जो याचना न करे, न माँगे, कामनारहित  

सदानीरा = ऐसी नदी जिसमें सदैव नीर बहता रहे 

शुक्रवार, 24 अप्रैल 2020

भ्रष्टाचार-सहमति-असहमति-सम्मान

रंकों के लिए 

आपात योजना बनी

डाका डालने की 

सहमति पर बात बनी

मुर्दों की शिनाख़्त 

सरकारी दस्तावेज़ में 

रहस्यमयी बनाई गई

सिर्फ़ काग़ज़ पर 

हड़प योजना 

सफ़ाई से बनाई गई

डाके में मिली 

भारी-हल्की हिस्सेदारी 

बिना डकार पचाई गई

अनैतिक योजना में 

जो शामिल नहीं हुए 

उन्हें आदर्शवाद की 

चोखी चटनी चटाई गई

ज़ुबान खोलने 

क़लम चलाने की 

कलुषित क़ीमत बताई गई  

एक भव्य समारोह में 

अंगवस्त्रम ओढ़ाकर

प्रशस्ति-पत्र थमाकर

निर्लज्ज आँखों से 

चेहरा घूरते हुए

अंदर धू-धू जलती 

ईर्ष्यालु आग 

होंठों से दबाते हुए 

बेईमान हाथों से  

बेमन की ताली बजाई गई। 

©रवीन्द्र सिंह यादव

युद्ध


अतीत में युद्ध हुए हैं 


महत्त्वाकाँक्षा मुनाफ़ा का

 

मातमी मुकुट धरकर 


या अपमान और कुंठाओं से त्रस्त 


मानवीय प्रकृति की 


बिडंबनाओं में उलझकर 


करोना-काल में स्थगित है


युद्ध-सामग्री क्रय-विक्रय 


संयुक्त युद्धाभ्यास 


परमाणु बम परीक्षण


अवैध हथियारों की खेप


मौन है विप्लवी लय


मानवता को आहत करने 


कैसे रचें महाभीषण   

  

युद्धक-षड्यंत्र


गोपनीय मंत्रणाओं को 


कैसे आयोजित करे 


हलकान शासन-तंत्र 


अलसाई सरहदों पर 


सन्नाटा और शांति


शिद्दत से महसूसकर


प्रबुद्ध मानवता लेती है  


पुरसुकून की सांस


बेज़मीरी इंसान की 


बन गयी है तारीख़ी फांस। 


 ©रवीन्द्र सिंह यादव  


बुधवार, 22 अप्रैल 2020

मृत्यु

महाभारत में 

युधिष्ठिर से यक्ष-प्रश्न-

"संसार में सबसे बड़े आश्चर्य की बात क्या है?"

"मृत्यु"

"रोज़ दूसरों को मरता हुआ देखकर भी  

ख़ुद की अमरता के सपने देखता है मानव।"

युधिष्ठिर ने विनम्रतापूर्वक उत्तर दिया। 

अकाट्य सत्य है मृत्यु 

जिसे देर-सबेर आना ही है 

मृत्यु का डर

समाया है रोम-रोम में 

फिर भी निर्विकार 

दौड़ रहा होता है 

भय को परास्त करने के वास्ते 

सत-चित-आनंद के 

दुर्गम हैं रास्ते

हर पल अकेले ही 

लड़ी जाती है जंग 

पास आती मृत्यु से

करोना वायरस लील गया है

दुनियाभर में  

1,76,860 जानें अब तक

यह भयानक आँकड़ा 

बढ़ता रहेगा कब तक? 

© रवीन्द्र सिंह यादव

मंगलवार, 21 अप्रैल 2020

अवसान की अवधारणाएँ

जटिलताएँ जीवन कीं  

सापेक्ष आलोकित हैं 

अस्तित्त्व-वेदना का 
  
पराभवपरायण होना 

अनंत और विस्तृत है

अखिल व्योम में व्याप्त हैं 

अवसान की अवधारणाएँ 

मधु-मालती तो खिल उठी 

दुर्भावनाएँ आशंकाएँ परे रख 

बेरी पर बचा है बस एक बेर

बीतते बूढ़े बसंत का  

डाली झुका स्वाद चख। 

 ©रवीन्द्र सिंह यादव   

काल-चक्र

पराजयबोध लिए 

बैठा है मानव 

करोना-काल के 

दुष्कर दुर्दिन में 

भोर-बेला में 

शांत है नदी तट 

दोपहर में 

सन्नाटे को 

गले लगाए है 

वयोवृद्ध विशाल वट

विरह वेदना में 

विचलित है 

सिंदूरी संध्या 

झील में डूबता 

रक्ताभ सूरज 

तलाश रहा है 

विस्फारित नेत्रों से 

प्रकृति का 

कुशल चितेरा 

उदासियों का 

गठा गट्ठर लादे 

बीतेगी अपनी गति से 

अतल अवसाद की 

स्याह ओढ़नी ओढ़े 

झुँझलाई यामिनी

काल का कलन करता 

अभिमान को रौंदता

आएगा एक और सबेरा।

© रवीन्द्र सिंह यादव  

सोमवार, 20 अप्रैल 2020

कश्ती के मुसाफ़िर को

कश्ती के 

मुसाफ़िर को

साहिल की 

है दरकार

बिफरा समुंदर  

अपनी मर्यादा 

लाँघ जाता 

है कभी-कभार

सुदूर किनारे पर 

वो उदास पेड़ की 

शाख़ पर   

शोख़ हवा की 

है शबनमी लहकार 

है तसल्ली 

बस इतनी

अब तक 

साथ निभाती  

अपने हाथ 

है पतवार।   

© रवीन्द्र सिंह यादव 

रविवार, 19 अप्रैल 2020

दरवाज़ा


पुकारने पर 

खटखटाने पर 

पीटने पर

साँकल बजाने पर  

खुल जाया करता था 

कॉल-बैल दबाने पर भी 

खुला करता था

घर का दरवाज़ा

अब मोबाइल 

अथवा रिमोट से 

खुलता है 

आधुनिक दरवाज़ा  

क्या हमारा दिमाग़ भी 

यांत्रिक/आधुनिक हो गया है?

दुर्घटना में घायल  

सड़क पर तड़पते

दंगों में जान लेते 

वहशी दरिंदों से 

जान की भीख माँगता 

निरपराध लाचार 

मॉब-लिंचिंग में 

खाल उधड़वाता 

हड्डियाँ तुड़वाता 

झेलता लाठी-सरियों के प्रहार

परिवेश में गूँजती चीख़-पुकार

दारुण हाहाकार

बच्चों पर भीषण अत्याचार  

शहरों से गाँव की ओर 

पैदल पलायन करते 

हिम्मती मज़दूरों के 

पाँवों के लहूलुहान छालों से

लाल होतीं सड़कें

प्रबुद्ध मानवता का 

सुकून छीनते मंज़र
  
हमारे सुन्न दिमाग़ के 

मज़बूत दरवाज़े पर 

लगे ताले को 

अब नहीं खोल पाते 

मुँह में ज़ुबान है 

पर नहीं बोल पाते। 

 ©रवीन्द्र सिंह यादव   


शनिवार, 18 अप्रैल 2020

पराधीन मिथ्या स्वप्न

अचानक 

क्वारंटीन हुए 

एक पक्षी प्रेमी ने

क्वारंटीन सेंटर से 

मित्र को फोन किया

अपने प्यारे तोता-तोती को 

उसके घर ले जाने का 

अनुरोध किया 

पिंजड़े में बंद 

तोते चिंतामग्न थे

मालिक की 

करोना-वायरस बीमारी से 

विचलित थे  

सोच रहे थे-

मानव तुम हो बहुत भले

जल्दी हो जाओ चंगे-भले 

हमें सुंदर पिंजड़े में रखते हो 

नियमित इसे साफ़ करते हो 

दाना-पानी

मनचीते फल 

गाजर-हरी मिर्ची 

ताज़ा-ताज़ा लाते हो 

हमें पिजड़े में ही नहलाते हो 

सलाख़ें बहुत मज़बूत हैं 

लोहे के पिंजड़े कीं 

कभी ये गल जाएँ 

तेज़ाबी बारिश के छींटों की

ऐसी लक्षित बीम से 

जो सबको छोड़कर 

केवल सलाख़ों को गला दे 

हम मुक्ति का 

असीम आनंद लेते हुए 

पहले भरेंगे लंबी उड़ान

खुले आकाश में 

मिटा डालेंगे 

सारी मानसिक थकान  

लौटेंगे धरा पर 

ताज़ा हवा के इलाक़े में

मरुस्थल की ठंडी रेत में 

कुलाँचें भरेंगे

अपने-अपने पैरों-चोंचों से 

कुछ नया लिखेंगे

भुरभुरी रेत पर    

कल-कल करते झरने में 

पंख फड़फड़ाते हुए 

एक-दूसरे पर 

पानी के छींटे उलीचते हुए

जीभर के पहाड़ी स्रोत का 

मीठा नीर पिएँगे 

फिर लौटकर आएँगे 

तुम्हारे घर के सामने 

बूढ़े नीम की 

कभी फुनगी पर 

कभी छालरहित टहनी पर बैठ 

इत्मीनान से मुस्कुराएँगे 

तुम्हें कभी न चिढ़ाएँगे 

अपनी मुक्ति को 

आजीवन सँभालेंगे 

फिर किसी 

आज़ादी विरोधी स्वार्थी मानव के 

हाथ न आएँगे। 

©रवीन्द्र सिंह यादव


शुक्रवार, 17 अप्रैल 2020

समय की स्लेट पर

करोना काल के 

विवश साक्षी हैं हम,

ऐतिहासिक तारीख़ के साथ 

याद किए जाने के 

महत्त्वाकाँक्षी हैं हम। 

दर्ज हो रहे हैं

क़िस्से-दर-क़िस्से 

मानवता के विस्तार 

और संवेदनाविहीन व्यवहार के

समय की स्लेट पर 

लिखी जा रही है इबारत,

पूँजी के आसपास 

टिकी है 

सरकारी 

ग़ैर-सरकारी सोच 

खिड़कियाँ बनाना 

भूल गए हैं हम 

खड़ी कर दी है

भावशून्य इमारत

जिसमें सब दिखेंगे 

हाथ धोते हुए, 

चेहरे पर मास्क का 

अनचाहा भार ढोते हुए।

जिसके पृथक-पृथक तल में 

अपने-अपने कंधों पर 

लिए खड़े हैं हम अपनी लाशें,

विद्वता को नकार 

भीड़ में मुँह छिपाकर 

हम गिन रहे हैं 

अपनी बची-खुचीं सांसें।  

© रवीन्द्र सिंह यादव 

गुरुवार, 16 अप्रैल 2020

हत्यारे के घर में चाय-पानी

उस रोज़ 

सैर से लौटते हुए 

मित्र मुझे एक घर में 

अकारण ही ले गया

कोई काग़ज़ी लेनदेन था 

चाय-पानी के बाद 

हम अपने रास्ते पर आए। 


मैंने मित्र को छेड़ते हुए कहा-

"
जोड़ा बेमेल था।"

"
पहली 

इसके कुकर्मों के चलते 

आत्मदाह कर चल बसी 

दूसरी के हाथ 

पहली की हत्या की  

चिट्ठी हाथ लग गई

अब तलाक़ का 

केस चल रहा है

कइयों का घर 

झगड़े में पल रहा है  

यह जो तीसरी है 

दूसरी को 

तलाक़ की डिग्री 

मिलने पर 

विधिवत पत्नी हो जाएगी।"



मित्र की 

पहेलीनुमा बातें सुनकर 

मेरा सर 

चकरा गया

चलते-चलते 

लैम्प-पोस्ट से 

टकरा गया

सोचने लगा-

हत्यारे-

कलाप्रेमी

कलापारखी 

संगीतप्रेमी

प्रकृतिप्रेमी

पर्यावरणप्रेमी 

पक्षीप्रेमी

समाजसेवी

चेहरे पर 

शालीन मुस्कान लिए होते हैं!

उस घर में दिखी 

एक-एक वस्तु

मेरे ज़ेहन में 

ज़ोर-ज़ोर से 

हथौड़े-से 

निर्मम प्रहार करती हुई 

पूछ रही थी-

क्यों आए थे

एक हत्यारे के साथी के साथ 

हत्यारे के घर में?

©
रवीन्द्र सिंह यादव


विशिष्ट पोस्ट

मूल्यविहीन जीवन

चित्र: महेन्द्र सिंह  अहंकारी क्षुद्रताएँ  कितनी वाचाल हो गई हैं  नैतिकता को  रसातल में ठेले जा रही हैं  मूल्यविहीन जीवन जीने को  उत्सुक होत...