सोमवार, 20 अप्रैल 2020

कश्ती के मुसाफ़िर को

कश्ती के 

मुसाफ़िर को

साहिल की 

है दरकार

बिफरा समुंदर  

अपनी मर्यादा 

लाँघ जाता 

है कभी-कभार

सुदूर किनारे पर 

वो उदास पेड़ की 

शाख़ पर   

शोख़ हवा की 

है शबनमी लहकार 

है तसल्ली 

बस इतनी

अब तक 

साथ निभाती  

अपने हाथ 

है पतवार।   

© रवीन्द्र सिंह यादव 

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

आपकी टिप्पणी का स्वागत है.

विशिष्ट पोस्ट

साँचा

मूल्य संवेदना संस्कार  आशाएँ  आकांक्षाएँ एकत्र होती हैं  एक सख़्त साँचे में  ढलता है  एक व्यक्तित्त्व उम्मीदों के बिना भी  जीते जाने के लिए द...