सौंदर्यमयी स्रोतस्विनी
उतर रही है
अल्हड़ चंचला-सी
पर्वत-श्रृंखला को
छेड़ते श्वेत बादलों कीं
अठखेलियों के बीच
प्रीत पगे प्रियदर्शन पर्वत से
पावन अश्रुधारा-सी
उदधि में अवसान तक
बसाती गई है
किनारे-किनारे कालजयी सभ्यताएँ
मैदानों को करती गई है
ख़ुशहाल आबाद
फैलाए विस्तृत अयाचक बाहें
विकास की सीढ़ियाँ
भारी पड़तीं जा रहीं हैं
नदी के नैसर्गिक किनारे
जबरन सिकोड़तीं जा रहीं हैं
अपनी अभूतपूर्व दुर्दशा पर
लज्जित है पराजित है
कल-कल बहता उज्जवल नीर
पर्वत से कुछ दूर बहकर
दुर्गंधयुक्त विषाक्त स्याह होकर
लाचार नाविक की
किनारे बँधी नाव को
मासूम नई पीढ़ी को
नहीं समझा सकेगा कोई
सदानीरा की पर्वत-सी पीर!
©रवीन्द्र सिंह यादव
शब्दार्थ-
स्रोतस्विनी = नदी ( किसी स्रोत से निकली जलधारा )
अयाचक = जो याचना न करे, न माँगे, कामनारहित
सदानीरा = ऐसी नदी जिसमें सदैव नीर बहता रहे
नदीप्रदत्त कालजयी सभ्यताओं-सी कालजयी रचना ... नदियाँ ही नहीं सारी प्रकृत्ति ही जीवनदायिनी है .. इसे सबसे ज्यादा नुक़सान हम इंसान नामक दोपाए जानवरों ने ही तो पहुंचाया है ...
जवाब देंहटाएंदोहरी ज़िन्दगी के हम सभी हो गए अभ्यस्त
दिन-रात नाला बहा कर करते नदी को त्रस्त
सुबह-शाम हो रही तट पर तथाकथित पावन
गंगा-आरती में झूमते हैं होकर नित मदमस्त,
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (26-04-2020) को शब्द-सृजन-18 'किनारा' (चर्चा अंक-3683) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
--
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
वाह ...अद्भुत सुंदर सृजन।
जवाब देंहटाएंनदी की पावन धारा की तरह आपके शब्द भी शुचि भाव लिए प्रवाहित हो रहे हैं।
सुंदर सृजन
जवाब देंहटाएं
जवाब देंहटाएंसुंदर अभिव्यक्ति सर ,सादर नमन
बहुत सुंदर सृजन भाई रविन्द्र जी, इन्ही भावों पर लिखी एक स्वयं की पुरानी रचना याद आ गई।
जवाब देंहटाएंशानदार सृजन !
कल-कल बहता उज्जवल नीर
पर्वत से कुछ दूर बहकर
दुर्गंधयुक्त विषाक्त स्याह होकर
लाचार नाविक की
किनारे बँधी नाव को
मासूम नई पीढ़ी को
नहीं समझा सकेगा कोई
सदानीरा की पर्वत-सी पीर!
ये पंक्तियां दर्द बन उभरी है ।
अप्रतिम।
आदरणीया/आदरणीय आपके द्वारा 'सृजित' रचना ''लोकतंत्र'' संवाद मंच पर( 'लोकतंत्र संवाद' मंच साहित्यिक पुस्तक-पुरस्कार योजना भाग-३ हेतु नामित की गयी है। )
जवाब देंहटाएं'बुधवार' २९ अप्रैल २०२० को साप्ताहिक 'बुधवारीय' अंक में लिंक की गई है। आमंत्रण में आपको 'लोकतंत्र' संवाद मंच की ओर से शुभकामनाएं और टिप्पणी दोनों समाहित हैं। अतः आप सादर आमंत्रित हैं। धन्यवाद "एकलव्य"
https://loktantrasanvad.blogspot.com/2020/04/blog-post_29.html
https://loktantrasanvad.blogspot.in/
टीपें : अब "लोकतंत्र" संवाद मंच प्रत्येक 'बुधवार, सप्ताहभर की श्रेष्ठ रचनाओं के साथ आप सभी के समक्ष उपस्थित होगा। रचनाओं के लिंक्स सप्ताहभर मुख्य पृष्ठ पर वाचन हेतु उपलब्ध रहेंगे।
आवश्यक सूचना : रचनाएं लिंक करने का उद्देश्य रचनाकार की मौलिकता का हनन करना कदापि नहीं हैं बल्कि उसके ब्लॉग तक साहित्य प्रेमियों को निर्बाध पहुँचाना है ताकि उक्त लेखक और उसकी रचनाधर्मिता से पाठक स्वयं परिचित हो सके, यही हमारा प्रयास है। यह कोई व्यवसायिक कार्य नहीं है बल्कि साहित्य के प्रति हमारा समर्पण है। सादर 'एकलव्य'
स्त्रोतस्विनी की यह व्यथा हमारी देन है। हम अब नही थमे तो भविष्य में सदानीरा भी अपना अस्तित्व खो देगी।
जवाब देंहटाएंचेतावनी देती मार्मिक सुंदर पंक्तियाँ आदरणीय सर। सादर प्रणाम 🙏
सार्थक रचना रवीन्द्र जी | पहाड़ - पर्वतों को रौंदने वाले कदम , जलधाराओं को मलिनता में आकंठ डुबो देने वाले कथित अंध भक्त कहाँ सदानीरा की पर्वत सी पीड समझेंगे | हर नदी अपने क्षेत्र की गंगा है | ऐसी ही हर नदी के नाम एक प्रार्थना --
जवाब देंहटाएंनदिया ! तू रहना जल से भरी -
सृष्टि को रखना हरी भरी |
झूमे हरियाले तरुवर तट तेरे
t तेरी ममता की रहे छाँव गहरी!!
देना मछली को घर नदिया ,
प्यासे ना रहे नभचर नदिया ;
अन्नपूर्णा बन खेतों को -
अन्न - धन से देना भर नदिया !
हों प्रवाह सदा अमर तेरे -
बहना अविराम - न होना क्लांत ,
कल्याणकारी ,सृजनहारी तुम
रहना शांत -ना होना आक्रांत ,!!
पुण्य तट तू सरस , सलिल ,
जन कल्याणी अमृतधार -निर्मल ;
संस्कृतियों की पोषक तुम -
तू ही सोमरस -पावन गंगाजल !!
सादर
फैलाए विस्तृत अयाचक बाहें
जवाब देंहटाएंविकास की सीढ़ियाँ
भारी पड़तीं जा रहीं हैं
नदी के नैसर्गिक किनारे
जबरन सिकोड़तीं जा रहीं हैं
अपनी अभूतपूर्व दुर्दशा पर
लज्जित है पराजित है
नदियों की दुर्दशा और प्रकृति के दोहन का अंजाम आज भुगत रहा है मानव घर में कैद होकर....।
लज्जित और पराजित होने की भी कोई सीमा होती है एक समय सभी विरोध करेंगे धरा आसमां वृक्ष नदियां या फिर अबला नारी...।
सदानीरा की पीर का बहुत ही हृदयस्पर्शी शब्दचित्रण। बहुत लाजवाब सृजन।