गुरुवार, 28 जून 2018

मॉब-लिंचिंग



अफ़वाहों का बाज़ार गर्म है
क़ानून क्यों इतना नर्म है ?
मॉब-लिंचिंग का यह भयावह दौर
इंसानियत के लिये अब कहाँ है ठौर
जब किसी मज़लूम को सताया जाता था
आततायी भीड़ के आगे खड़े होते थे हम
आज किसके साथ खड़े होते हैं हम ?
रहम की भीख माँगते 
दर्द से कराहते-चीख़ते बे-क़ुसूरों का  
तमाशा देखते हैं 
और विडियो बनाते हैं हम
क्यों उतारू हो गयी है भीड़
सड़क पर न्याय करने को ?
क्यों नागरिक मजबूर हैं 
अपना अधिकार खोकर मरने को?
कौन है जो इस भीड़ के
मन-मस्तिष्क पर क़ब्ज़ा कर चुका है?
यह वही शख़्स है
जो कुटिलता से मुस्करा रहा है
इंसान के ख़ूनी दरिंदा  होने पर
वहशीपन का अट्टहास सुनकर
नृशंसता का नंगा नाच करता 
बर्बर वीभत्स विडियो देखकर
अपना छद्म मक़्सद हल होता देखकर
आओ उसकी आज पहचान करें
आँगन  को अब न श्मशान करें
सोशल-मीडिया के 
इस्तेमाल की तमीज़ सीखें 
ताकि और न उठे नफ़रत का धुआँ  
न गूँजें अमन के गुल्सितान में 
बे-गुनाहों  की चीख़ें!
सभ्यता का इतिहास 
मूल्यों को रोपने की सतत सीढ़ी है 
रोकना होगा पतन का सैलाब 
दिग्भ्रमित आज की पीढ़ी है। 
© रवीन्द्र सिंह यादव       

शनिवार, 23 जून 2018

बरखा बहार (हाइकु)



तितली सोई- 
थी बरखा बहार  
गरजे मेघ 

टूटा सपना- 
तन्हाई थी बिखरी 
क्रुद्ध दामिनी 

चली पवन-
गजरा उड़ाकर 
 देने पिया को

काले बादल- 
होने लगे ओझल 
नाचे मयूर 

आना दोबारा-  
हों साथ जब पिया 
सुनो बहार 

© रवीन्द्र सिंह यादव    

गुरुवार, 21 जून 2018

ख़लिश दिल की

रोते-रोते 
ख़त लिखा 
अश्क़ों का दरिया
बह गया 
हो गए  
अल्फ़ाज़ ग़ाएब 
बस कोरा काग़ज़
रह गया
अरमानों की 
नाज़ुक कश्ती में 
गीले जज़्बात रख  
दरिया-ए-अश्क़ में
बहा दिया 
हसरतों का 
आज भी 
अंतर में 
जल रहा दीया 
गलने से पहले 
मिल जाय गर 
सुन लेना 
सिसकती सदाएँ  
महसूसना 
तड़प-ओ-ख़लिश पुरअसर। 

© रवीन्द्र सिंह यादव    

शुक्रवार, 15 जून 2018

फ़िटनेस चैलेंज़



पंचतत्व से बने 
भव्य 
सुसज्जित सरकारी 
एक्यूप्रेसर ट्रैक पर
प्राकृतिक वातावरण में 
देखा फ़िटनेस चैलेंज़ 
दिल्ली में 
दम घोंटती 
ज़हरीली आबोहवा का 
देखा ख़तरनाक बैलेंस 


नंगे पाँव 
ककरीली पथरीली पगडंडियों पर 
पसीने से लथपथ 
झेलतीं झुलसाती लू के थपेड़े  
मटके में मटमैला 
पानी लेकर 
मीलों वॉक करके लौटतीं  
भारत की बेटियों को 
देखा है.....  
जो अनचाहे व्यायाम के बाद 
घर आकर 
कभी भूखे पेट भी 
सो जाया करती हैं!
#रवीन्द्र सिंह यादव 

बुधवार, 13 जून 2018

सहानुभूति...


दिनभर 
घरेलू कामकाज में 
रमी रहती बहुरिया 
एक दिन बीमार हो गयी 
घरवाले बेचैन रहे 
बच्चे परेशान रहे 
काली कुतिया 
भूखी ही सो गयी 
प्यासी चिड़ियाँ 
चहचहाती रहीं 
गमलों में कलियाँ 
इंतज़ार करती रहीं 
दवा, फल, जूस आदि का 
भरपूर इंतज़ाम हुआ 
पूरा परिवार चिंता में 
परेशान तमाम हुआ 
चलभाषी संदेशों में 
ख़ैरियत के  
ख़ूबसूरत ख़्याल 
बच्चों के मर्मस्पर्शी 
मासूम सवाल 
सहानुभूति भरे 
मीठे बोलों की 
सुहानी बौछार आयी  
ज़िन्दगी का ख़तरे में होना 
क्या यक़ीनन अच्छा है......?
सोचकर बहुरिया 
मन ही मन मुस्कायी।  

# रवीन्द्र सिंह यादव 



शनिवार, 9 जून 2018

परिवेश

बहुरुपिया बौद्धिक अहंकार 

हमें कहाँ ले आया है? 

बेसुरा छलिया राग 

सुरीले सपनों का बसंती गाँव 

कब दे पाया है ?


सृजनमय  विनिमय से 

तिरोहित हमारा मानस 

संकीर्णता की 

अभेद्य परिधि का व्यास 

विस्तृत कर गया है

ईमानदारी के 

संवर्धन हेतु 

न्यास बने 

 दीमक बन

सरेआम

भ्रष्टाचार चाट गया है



बहुत भारी हो चली है

गुनाह में लज़्ज़त की तलाश

उग आयी नाग-फनी

कभी लुभाते थे

जहाँ गहरे सुर्ख़ पलाश



विश्वबंधुत्व के बीज 

उगने से पहले ही

सड़-गल रहे हैं 

धौंस-डपट

थानेदारी के 

आक्रामक बर्बर

विचार पल रहे हैं



चिंतन का केन्द्र-बिंदु

अब सिर्फ़ 

दूसरे के खलीते से 

पैसा निकालकर 

अपनी तिजोरी में 

कैसे पहुँचे,

पर टिक गया है 

आदमी का ज़मीर

चौराहे पर बिक गया है



संवाद की गरिमा 

अब आयात करनी होगी 

नयी पीढ़ी में 

संस्कार-मर्यादा की 

चिरंजीवी चिप लगानी होगी

  

शीशे पर जमी है

धूल ही धूल 

पारदर्शी

पानी भी न रहा 

शक्ल अब

एक-दूसरे की

आँखों में देखो 

शर्म होगी तो

ढक लेंगीं पलकें

पुतलियों को 

आदमी की बेशर्मी का

कोई सानी भी न रहा।  

#रवीन्द्र सिंह यादव 

शनिवार, 2 जून 2018

कमाई का हक़ जब माँगता है किसान...

बाँझ हो जाती है 
ज़मीं
नक़ल बाज़ार की  
करता है 
जब किसान 
सरकार को 
आता है पसीना
पसीने की 
कमाई का भाव  
जब माँगता है किसान।  



#रवीन्द्र सिंह यादव 

गुज़रे हुए सालों की तरफ़

गुज़रे हुए 
सालों की तरफ़ 
दौड़ी है आज 
थकी बेचैन नज़र 
फ़िक़रे और तंज़ का 
वो दौर 
जिसमें नहीं था 
कोई हम-सफ़र।

चाँद से माँगी थी 
शबनम में भीगी 
ठंडी चाँदनी 
मगर सूरज 
अड़ गया 
दिखाने अपनी 
शोलों-सी मर्दानगी। 

धूप सहन न हुई 
तो आये 
पीपल के 
घने साये में 
हवा को न जाने 
क्या हुआ 
उड़ा ले गयी पत्ते 
किसी के बहकाबे में। 

शहर से 
आया था गाँव 
शुद्ध हवा की ख़ातिर 
पेड़ काटे 
ईंट-भट्टे में जला दिये 
इंसान हो गया है 
बड़ा शातिर।  


चमन तक 
साथ चले हम-नवा 
बयाबान आया 
तो किनारा कर गये 
वक़्त के साथ 
बदला है इंसान भी  
वो पीठ पर वार 
दोबारा कर गये।  

#रवीन्द्र सिंह यादव 



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