बादलों की प्रतीक्षा में
अनिमेष अनवरत ताकते हुए
वृक्ष में क्या परिवर्तित हुआ?
ऋतुओं का संधिकाल आते-आते
सूख गए हरित-पीत पत्ते,
कुम्हलाए कोमल किसलय
मुरझा गए सुकोमल सुमनालय
व्याकुलता बढ़ती रही छाल की
काया क्षीण हुई विशाल वृक्ष की
वक़्त का क्या गया
बस स्मृतियों का ख़ज़ाना बढ़ गया
एक वार्षिक वलय और बढ़ गया
मिला कोई घट गया
पानी हवा से हट गया
लू के थपेड़े झेलकर
गुलमोहर खिल उठा
विपरीत मौसम में
कौन किससे रूठा?
©रवीन्द्र सिंह यादव
आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों के आनन्द में शुक्रवार 23 मई 2025 को लिंक की जाएगी .... http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा ... धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंसुंदर रचना
जवाब देंहटाएंसुंदर प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंपढ़ते-पढ़ते एक पल को लगा कि मैं खुद उस पेड़ की छाल में छुपा कोई साल दर साल का अनुभव हूं। “एक वार्षिक वलय और बढ़ गया”, बस इस लाइन ने तो सीधा दिल में दस्तक दी। कितना कुछ बदलता है धीरे-धीरे और हम बस देख भर पाते हैं, कुछ कर नहीं पाते। गुलमोहर का खिलना जैसे बताता है कि तकलीफ़ों के बाद भी रंग आते हैं ज़िंदगी में। सच बताऊं, ये कविता मौसम से ज़्यादा इंसानों की कहानी कहती है।
जवाब देंहटाएंवाह
जवाब देंहटाएंस्मृतियों का खजाना और वार्षिक वलय बढ़ गए
जवाब देंहटाएंवाह!!!
विपरीत मौसम में
कौन किससे रूठा?
सारगर्भित एवं चिंतनपरक सृजन ।