शनिवार, 30 नवंबर 2019

बदलीं हैं ज़माने की हवाएँ





हसरत-ए-दीदार में 
सूख गया 
बेकल आँखों का पानी,
कहने लगे हैं लोग 
यह तो है 
गुज़रे ज़माने की कहानी।

मिला करते थे हम 
मेलों 
त्योहारों
उत्सवों में,
मिलने की 
फ़ुर्सत किसे अब 
नस-नस में दौड़ती है 
 नशा-ए-इंटरनेट की रवानी। 

लिखते थे ख़त में 
सहज सरल शब्द 
लिपट जाते थे उनमें 
स्पंदन भावों के बंधन,
आज उपलब्ध हुए 
साधन इतने आधुनिक 
कि डरपोक सरकार ने भी 
राज़ की बात जानी। 

लगता है 
सब फ़ासले मिट गये 
हमारे दरमियाँ 
बदलीं हैं ज़माने की हवाएँ,
लोकतंत्र है अब तो 
राजा-रानी की 
हो गयी कहानी पुरानी।  
© रवीन्द्र सिंह यादव
   

गुरुवार, 21 नवंबर 2019

सुनो विद्यार्थियो!

अरे! सुनो विद्यार्थियो!

 क्यों सड़कों पर

अपना ख़ून बहा रहे हो 

अपनी हड्डियाँ तुड़वा रहे हो

अपनी खाल छिलवा रहे हो 

अपने बाल नुचवा रहे हैं 

अपने कपड़े फटवा रहे हो 

पुलिस की लाठियाँ खा रहे हो 

पुलिस की गालियाँ / लातें खा रहे हो 

क्यों सामान के बोरे-सा ढोये जा रहे हो 

चार-छह बेरहम पुलिसकर्मियों के हाथों

क्यों अपनी गरिमा को तार-तार करवाते हो 

पुरुष पुलिस की कुदृष्टि और उनके हाथों। 


भावी पीढ़ियों की राह आसान करने 

क्यों सहते हो दमन /क्यों पीते हो अपमान के घूँट 

नेताओं,नौकरशाहों,वकीलों पर करम 

छात्र-छात्राओं, किसान, मज़दूर और मज़लूम पर 

बर्बर प्रहार की पुलिस को मिली है खुली छूट 

आप पर प्रहार करता पुलिस का डंडा 

यदि आपने रोकने की जुर्रत की 

तो सरकारी कार्य में बाधा उत्पन्न करने की 

दर्ज़ होगी पेचीदा एफ़आईआर।     


आप ऐसा क्यों नहीं करते 

नेता-अभिनेता क्यों नहीं बनते

छोड़ो सस्ती शिक्षा की माँग 

रचो पाखंडी का अभिनव स्वाँग 

बाँटो दिलों को/ बदलो मिज़ाज को 

छिन्नभिन्न कर डालो समाज को 

बो डालो बीज नफ़रत के 

पालो ख़्वाब बड़ी हसरत के 

कोई डिग्री नहीं /कोई परीक्षा नहीं 

सिर्फ़ जनता को बरगलाकर विश्वास हासिल करो 

मुफ़्त आवास / मुफ़्त हवाई यात्रा / मुफ़्त रेलयात्रा

मिलेगी भारी-भरकम पुख़्ता सुरक्षा 

पेंशन से होगी बुढ़ापे की सुरक्षा 

संसद की केन्टीन का सस्ता खाना खाओ 

अपनों को मलाईदार ठेके दिलवाओ 

अपने और अपनों के  पेट्रोल पम्प

 स्कूल-कॉलेज-यूनिवर्सिटी खुलवाओ

चहेती कंपनियों के शेयर पा जाओ  

और भी न जाने क्या-क्या पाओ 

बिकने का मौक़ा आये तो 

ऊँची क़ीमत पर बिक जाओ 

कोई बिल ख़ून-पसीने की कमाई से 

पूरी ढिठाई से कभी न भरो 

क़ानून से भला क्यों डरो 

अरे! इंसान बनने की चाह में  

क्यों हो इंसाफ़ की राह पर अड़े 

बोलो! बन सकोगे इतने 

बे-हया बे-रहम चिकने घड़े?   

© रवीन्द्र सिंह यादव  

बुधवार, 13 नवंबर 2019

एहसासात का बे-क़ाबू तूफ़ान







दिल में आजकल 

एहसासात का  

बे-क़ाबू तूफ़ान 

आ पसरा है, 

शायद उसे ख़बर है 

कि आजकल 

वहाँ आपका बसेरा है।



ज़िंदगी में 

यदाकदा 

ऐसे भी मक़ाम आते हैं, 

कोई अपने ही घर में 

अंजान बनकर 

सितम का नाम पाते हैं।



कोई किसी को 

भूलता कहाँ है 

दर्द, गिला, ख़ता

यादों का सिलसिला

 हिज्र में नूर-ए-सहर है,

ज़िंदगी का यक़ीन 

मोहब्बत से ही तो हसीं है 

ज़माना कहता रहा 

कल से आज तक 

इक़रार का एतिबार 

पहर-दर-पहर है।  


ग़ुरूर तो पालो ज़रूर 

वक़्त गुज़रता है 

संग-ए-याद पर 

लिखती जाती है 

मख़मली उल्फ़त की कहानी,

चमन में उम्मीदों के ग़ुंचे

खिलते हैं बहार के इंतज़ार में 

फ़ासले बढ़ जाते हैं 

फ़साना-ए-दिल में ज़िक्र के लिए  

बचती है कसक की निशानी। 

© रवीन्द्र सिंह यादव 


शनिवार, 9 नवंबर 2019

विकास की सीढ़ियाँ


यह सड़ाँध मारती

आब-ओ-हवा 

भले ही

दम घोंटने पर

उतारू है,

पर अब करें भी

तो क्या करें

यही तो

हमसफ़र है

दुधारू है।



मिट्टी

पानी

हवा

वनस्पति से

सदियों पुरानी

तासीर चाहते हो,

रात के लकदक

उजालों में

टिमटिमाते

जुगनुओं को

पास बुलाकर

कभी पूछा-

"क्या चाहते हो?" 


तल्ख़ियों से

भागते-भागते

आख़िर

हासिल क्या हुआ?

ख़र्चे दूर होकर भी

पास लगते हैं,

ये बेडौल

बेतरतीब

बेहिसाब

फैले शहरों के मंज़र

उदास लगते हैं।


फ़ख़्र अब तो

गाँव को भी

नहीं रहा

अपनी रुमानियत पर,

अब तो कौए भी

सवाल उठा रहे हैं

हर मोड़ पर

लड़खड़ाती इंसानियत पर।



काला धुआँ

उखड़ती साँसों पर

दस्तक दे रहा है

क़ुदरत अब

बहुत रूठी हुई लगती है,

मानव सभ्यता

चंद सीढ़ियाँ ही तो

चढ़ी है विकास कीं

कोख में अब संतति

डर-डरकर पलती है।   

© रवीन्द्र सिंह यादव








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