शनिवार, 30 नवंबर 2019

बदलीं हैं ज़माने की हवाएँ





हसरत-ए-दीदार में 
सूख गया 
बेकल आँखों का पानी,
कहने लगे हैं लोग 
यह तो है 
गुज़रे ज़माने की कहानी।

मिला करते थे हम 
मेलों 
त्योहारों
उत्सवों में,
मिलने की 
फ़ुर्सत किसे अब 
नस-नस में दौड़ती है 
 नशा-ए-इंटरनेट की रवानी। 

लिखते थे ख़त में 
सहज सरल शब्द 
लिपट जाते थे उनमें 
स्पंदन भावों के बंधन,
आज उपलब्ध हुए 
साधन इतने आधुनिक 
कि डरपोक सरकार ने भी 
राज़ की बात जानी। 

लगता है 
सब फ़ासले मिट गये 
हमारे दरमियाँ 
बदलीं हैं ज़माने की हवाएँ,
लोकतंत्र है अब तो 
राजा-रानी की 
हो गयी कहानी पुरानी।  
© रवीन्द्र सिंह यादव
   

11 टिप्‍पणियां:

  1. जी बहुत सही कहा जमाने की हवाएं बदल चुकी है अब हवाओं में स्वच्छता नहीं तैरती, चिड़िया भी अपने पंखों को नहीं फडफड़ाती, स्वच्छ हवा तो मानो बीते जमाने की बात हो गई अब तो हवाओं में इंटरनेट की तरंगे दौड़ती हैं, तुरंत सुलभ हो जानेवाली विचारधाराएं दौड़ती हैं. टेक्नोलॉजी अच्छी है जीवन को सरल बनाती है लेकिन इसके कई घातक परिणाम भी हम लोग देख रहे हैं.. पहले जहां सभी एक साथ दिनभर की गपशप करते हुए खाना खाया करते थे अभी सब अपनी फोन में देखते हुए खाना खाते हैं किसने परोसा क्या परोसा इस से भी किसी को मतलब नहीं रह गया है.. राजा रानी की कहानियां वह भी बच्चे अब कहां सुनते हैं उन्हें भी बचपन से ही फोन पकड़ा दिया जाता है और वह फोन में ही दुनिया भर की सस्ती और घटिया चीजें अपने आप में ग्रहण करते हैं इसलिए भी आजकल ज्यादातर बच्चों का व्यवहार बहुत ही उग्र देखा जा रहा है, इन सबके पीछे इंटरनेट की दुनिया में बहुत सारे ऐसे गेम है जिनसे बच्चों का विकास होता जरूर है लेकिन समय से पहले वह परिपक्व हो रहे हैं ,
    ... बहुत ही सारगर्भित रचना आपने लिखी है आज के समकालीन समय को लेकर वर्तमान में आपने जिस तरफ इंगित किया है यह हम सभी महसूस कर रहे हैं एक छोटे से फोन मे हम सबों की दुनिया को सिकुड़ कर रख दिया है हम सब उस फोन के अंदर जो भी घटनाएं होती है खुद को उस से जोड़ते हैं और सोचते हैं कि यही हमारी दुनिया है असल में जो हमारे आसपास है हमारे रिश्ते हैं हम सब उन सब से बहुत दूर जा चुके हैं एक बहुत ही जबरदस्त रचना आपने लिखी है आपको बहुत-बहुत बधाई रविंद्र जी
    .... बहुत जरूरी जरूरी है एक कवि का इस तरह की बातों की ओर ध्यान आकर्षित करना ताकि लोगों को समझ तो आए कि वह क्या खो रहे हैं..।

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  2. जी नमस्ते,

    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (०१-१२ -२०१९ ) को "जानवर तो मूक होता है" (चर्चा अंक ३५३६) पर भी होगी।
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।

    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    आप भी सादर आमंत्रित है
    ….
    अनीता सैनी

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  3.  जी नमस्ते,
    आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज शनिवार 30 नवंबर 2019 को साझा की गई है......... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद! ,

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  4. जी सही कहा आपने। तकनीक ने जितना हमे नजदीक किया है उतना ही हमे असली जिंदगी से काटकर भी रख दिया है। कई बार आभासी दुनिया असल जिंदगी पर भारी पड़ ही जाती है। एक संतुलन जो बनना चाहिए वो नहीं बन पाता। हाँ, लोकतंत्र तो आ गया है लेकिन शायद राजा रानी खत्म नहीं हुए हैं। लोकतंत्र ने नये राजा रानी पैदा किया हैं जिनके आगे प्रजा आज भी नतमस्तक रहती है। सुंदर कृति। आभार।

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  5. नस-नस में दौड़ती है 
     नशा-ए-इंटरनेट की रवानी। 
    यथार्थ सर ,कहते हैं कि इंटरनेट ने दूरियाँ कम की हैं ,मगर दिलों में दूरियाँ भी बहुत बढ़ा दी हैं ,सादर नमस्कार

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  6. बहुत झकझोरने वाली कविता !
    इस मशीनी दौर में हमारे लोकतंत्र के ज़मीर की जगह जो मशीन फ़िट की गयी है वो भी कभी-कभी उसके ज़मीर की ही तरह उसकी ज़लील हरक़तों पर लानत भेजने लगी है और उसने अपने माध्यम के रूप में आप जैसे जागरूक कवियों को चुना है.

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  7. बेनामी12/12/2019 04:38:00 pm

    बहुत खूब

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  8. आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज रविवार 29 दिसम्बर 2019 को साझा की गई है...... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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  9. मिला करते थे हम
    मेलों
    त्योहारों
    उत्सवों में,
    मिलने की
    फ़ुर्सत किसे अब
    नस-नस में दौड़ती है
    नशा-ए-इंटरनेट की रवानी।
    सही कहा अब किसी से मिलने की फुर्सत ही कहाँ
    इन्टरनेट की दुनिया में अब सब घर बैठे मिल जाते हैं लेकिन इस सब में वो बात कहाँ जो हमारी पीढी तक ही समाप्त हो रही है....इसके दुष्परिणाम की चिन्ता कविता में झलक रही है
    बहुत ही सुन्दर चिन्तनपरक कृति।

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