शुक्रवार, 26 जून 2020

बाबा रामदेव जी के नाम खुला पत्र

बाबा रामदेव जी के नाम खुला पत्र

महोदय,

       समाचार माध्यमों से ज्ञात हुआ कि आपने करोना वायरस (Covid-19 ) से फैली महामारी का शत-प्रतिशत सफल इलाज खोज लिया है और 'कोरोनिल' नाम की दवा से सात दिन में बीमारी ठीक होने का दावा किया है।
भारत में दैवीय चमत्कारों में बड़ा विश्वास है तो क्या महामारी में इसका फ़ाएदा उठाना चाहिए? परंपरागत भारतीय चिकित्सा पद्यति आयुर्वेद में जनता के विश्वास को उपचार के बहाने व्यापार बनाने का आपका यह प्रयास घोर निंदनीय है। सर्वाधिक चिंता का विषय है कि दवा के आविष्कार का मानवीय बीमारियों के संदर्भ में दावा प्रस्तुत करने की स्थापित प्रक्रिया है जिसका आपने पालन नहीं किया है। ऐसा ही समाचारों में बताया जा रहा है। आपके दावे की जाँच के लिए सरकार ने कार्यदल नियुक्त कर दिया है।

       आपने स्वदेशी आंदोलन को लोकप्रिय बनाने में सराहनीय भूमिका निभाई है लेकिन 'कोरोनिल' नाम में स्वदेशी को क्यों भूल गए? 'कोरोनाश' भी एक अँग्रेज़ी-हिंदी मिश्रित नाम हो सकता था।
आपने अपना दावा नोबेल पुरस्कार समिति के समक्ष पेश क्यों नहीं किया? अगर आपको वहाँ से अनुशंसा मिल जाती तो आज दुनिया में भारत का नाम छा जाता और आपके प्रति दुनियाभर में पीड़ित मानवता श्रद्धा से भर जाती।

       सबसे बड़ी बात कि इस महामारी के संकटकाल में आपने अपनी दवा का दाम 600 रुपये तय किया। आप इसे निशुल्क उपलब्ध कराने पर विचार क्यों नहीं कर सके? आपका संस्थान आर्थिक रूप से दिन दूना रात चौगुना बढ़ रहा है तो फिर इतना लालच और उतावलापन क्यों?

        भारत से लेकर दुनियाभर में योग को लोकप्रिय बनाने में आपका योगदान अतुलनीय है किंतु आपका ध्यान योग से हटकर व्यापारी बनने पर टिक गया है जो भारतीय जीवन दर्शन में साधु-संन्यासियों की जीवन शैली (हानि-लाभ की गणना से परे) के मानदंडों से विपरीत जाता नज़र आता है। आपके द्वारा सत्ता का विरोध और समर्थन आपको एक साधु नहीं राजनीतिक व्यक्ति के रूप में चिह्नित करता है अतः आपकी विश्वसनीयता संदेहास्पद हो गई है।
       आपको पत्र लिखने का मक़सद सिर्फ़ यह बताना है कि मार्ग दिखानेवाला ही मार्ग भटक जाय तो अनुयायियों का क्या होगा? वे देश में किस प्रकार की संस्कृति का विकास करेंगे ? राष्ट्रवाद को मिथ्या राष्ट्रवाद की दिशा में कौन ले जा रहा है?

शेष फिर कभी।
सादर नमन।

भवदीय

रवीन्द्र सिंह यादव

 दिनांक 26 जून 2020          

गुरुवार, 25 जून 2020

इंसान को छोड़कर...

आम की फली हुईं 

अमराइयों में

कोयल का कुहू-कुहू स्वर 

आज भी 

उतना ही 

सुरीला सुनाई दे रहा है

मयूर भी 

अपने नृत्य की 

इंद्रधनुषी आभा से 

मन को मंत्रमुग्ध करता 

दिखाई दे रहा है

तितली-भंवरे 

मधुवन में 

अपने-अपने मंतव्य 

ढूँढ़ रहे हैं  

स्याह रात में 

झींगुर-मेंढक के स्वर 

गूँज रहे हैं 

जुगनू भी 

अँधेरे से लड़ते 

नज़र आ रहे हैं

उल्लू-चमगादड़ 

मुस्तैद मिशन पर 

रोज़ जा रहे हैं

रातरानी के सुमन 

मदमाती सुगंध 

बिखेर रहे हैं

मेंहदीं के झाड़ 

किसी की बाट हेर रहे हैं   

अंबर के आनन में 

मेघमालाएँ सज रहीं हैं  

कलियाँ-फूल और पत्तियाँ 

अपनी नियति के पथ पर 

सहज सज-धज रहीं हैं

पहली बारिश में  

नदी मटमैली होकर 

अपने तटबंधों को 

सचेत कर रही है

चंदा-सूरज की कालक्रम सूची

नियमित समय-पटल पर 

टंग रही है

हवा भी राहत की सांस लेकर 

मन रंग रही है  

एक इंसान है 

जो आशंकाओं से घिर गया है 

करोना-वायरस के मकड़जाल में 

फँस गया है

युवा-मन भविष्य की तस्वीर पर 

असमंजस से भर गया है 

अवसर की आस में 

थककर आक्रोश से भर गया है

कोई अपनी पगडंडियाँ बनाकर 

अनजान सफ़र पर चल पड़ा है

आत्मबल की पूँजी के सहारे

उतरना ही है अब मझदार में

कब तक चलेगा किनारे-किनारे? 

 © रवीन्द्र सिंह यादव

शनिवार, 20 जून 2020

मैं उसका पिता हूँ / लघुकथा

         पूरे ज़िले में विज्ञान की पढ़ाई के लिए ज़िला मुख्यालय में पुराने राजशाही महल की इमारत में एकमात्र सरकारी कॉलेज था। समीर शहर में रहकर पढ़ाई करने पिछले महीने ही गाँव से आया था। वह उस दिन पंद्रह मिनट पहले कॉलेज के लिए निकला था। उसे अपने दाएँ पैर के जूते की मरम्मत करवानी थी जिसकी नोंक पर सिलाई उधड़ रही थी। 
        लगभग चालीस की उम्र पार कर चुका सुखलाल ग्राहक की प्रतीक्षा में व्याकुल था। इस बीच एक सप्ताह पुराने अख़बार की हैडिंग पढ़ने की कोशिश कर रहा था। पढ़ने में समीर ने मदद की। हैडिंग थी-
"श्रीलंकाई नौसैनिक ने परेड का निरीक्षण करते हुए प्रधानमंत्री राजीव गाँधी पर बंदूक की बट से किया हमला!"
       दतिया के क़िला-तिराहे पर सड़क-किनारे उसके नन्हे-से कार्यस्थल पर जब समीर की साइकिल रुकी तो सुखलाल की आँखों में ग्राहक को देखकर चमक आ गई। समीर ने जूता उतारा और जेब से रुमाल निकालकर माथे का पसीना पोंछते हुए दाएँ पैर के अँगूठे से जूते के बीमार हिस्से की ओर इशारा करते हुए कहा-
"यहाँ मजबूत सिलाई करना।"
"मतलब?"
सुखलाल ने ग़ुस्से से समीर को देखा।
"आपको क्रोध क्यों आ रहा है?"
"कॉलेज जा रहे हो?"
"हाँ"
साइकिल में आगे हेंडिल पर लगे कैरियर पर चिपके स्टूडेंट-बैग को देखकर सुखलाल ने पूछा-
"किस क्लास में पढ़ते हो?"
"बी.एस-सी.प्रथम वर्ष।"
"तुम्हारा नाम?"
"समीर"
"राकेश को जानते हो?"
"हाँ, मेरी ही क्लास में है।"
"मैं उसका पिता हूँ, पढ़ाई में उसकी मदद करना। बहुत मुश्किल से उसे इस क्लास तक पहुँचाया है। ये दो रुपये उसे दे देना। पाँच मिनट पहले ग़ुस्सा होकर कॉलेज चला गया, जेब-ख़र्च माँग रहा था। कहना कि केंटीन से कुछ लेकर खा ले।"
सुखलाल ने आग्रहपूर्वक आद्रभाव से कहा। 
जूते की सिलाई पूरी हुई। तय दाम चुकाते हुए समीर ने मासूमियत से पूछा-
"आपने शुरू में मुझे ग़ुस्से से क्यों घूरा?"
"अपनी रोज़ी को कोई लज्जित होता हुआ नहीं देखता, आपका पैर के अँगूठे से इशारा करके बताना मुझे अच्छा नहीं लगा।"
"सॉरी अंकल।"
कहता हुआ समीर साइकिल के पैडल पर पाँव रखता है और गंभीर होकर स्वाभिमान-अभिमान, विश्वास-अविश्वास;रोज़ी के प्रति श्रेष्ठता का भाव आदि पर चिंतन करता हुआ कॉलेज पहुँच जाता है।

© रवीन्द्र सिंह यादव   
   

शुक्रवार, 12 जून 2020

करोना-काल में लाशें

जीते-जीते 

जीवन-शैली विकसित हुई 

शव को सम्मान 

मिलने की बात तय हुई 

आज करोना-काल में 

सघन या छितराई 

लाशों की भीड़ 

तलाश रही है 

अंत्येष्टि की गरिमा से भरा नीड़

भीड़ की भरमार में 

लकवाग्रस्त तंत्र 

भेज रहा है 

एक ही घर में 

एक ही व्यक्ति की 

दो-दो बार लाशें!

कोई भटक रहा है 

कई-कई दिन  

लेने अपनों की लाशें 

लाशों का हिसाब 

बार-बार बिगड़ रहा है 

कोई दफ़्तर-दफ़्तर 

एड़ियाँ रगड़ रहा है

कहीं दाह-क्रिया / दफ़नाने का 

उपेक्षित सरकारी रबैया

कहीं अविश्वास की नाव में  

बैठे हैं यात्री और खिबैया  

कचरा-गाड़ी पर शव...!

यह कैसा वक़्त का विप्लव!  

करोना-योद्धाओं का कैसा 

चिंतनीय विभव-पराभव

कुछ तो भर चुके हैं 

ग़ुस्से से लबालब

वर्जनीय-ग्रहणीय निर्देशों के बवंडर

बढ़ा रहे हैं रोज़-रोज़ संशय और डर

देख-सुन करोना महामारी का 

कसता शिकंजा     

हृदय कचोट रहा है

कोई निर्मम ऐसा भी है 

जो धन लूट-खसोट रहा है

दुनियाभर में लाशों की दुर्दशा के 

हृदयविदारक समाचार

कब तक देखेंगीं आँखें बार-बार?

एक अदृश्य दुश्मन से 

भयातुर है भीरु इंसानी दुनिया 

मास्क मुँह पर हाथों में दस्ताने

अनचीह्नी-सी हो गई है 

करोना-काल की दुनिया

बदली आब-ओ-हवा में 

नया रण-क्षेत्र हो गई है दुनिया।    

© रवीन्द्र सिंह यादव

मंगलवार, 9 जून 2020

डरे हुए लोग / लघुकथा



       
तफ़तीश-अफ़सर की टीम को देखकर सबने खिड़कियाँ-दरवाज़े बंद कर लिए। तरबूज़, ख़रबूज़ा,खीरा और ककड़ी आवाज़ लगाकर बेचता एक ठेलेवाला गया। अफ़सर ने सोचा अब तो शायद कोई कोई तो बाहर निकलेगा ही लेकिन कमाल का आंतरिक सामंजस्य है इन ख़ामोश मकानों में कि बच्चा तक बाहर नहीं निकला। 
अफ़सर कुछ देर इंतज़ार के बाद उस मकान के दाहिने पड़ोसी के दरवाज़े पर दस्तक देता है। 
बाहर आई स्त्री ने हिम्मत के साथ पूछा-
"कहिए..."
"आपके पड़ोस में औरत कैसे जली?
"मालूम नहीं।"
"कोई चीख़-पुकार नहीं सुनाई दी?
"बिल्कुल नहीं, कूलर चल रहे थे।"
अफ़सर ने अब बाईं ओर के पड़ोसी का दरवाज़ा खटखटाया। बाहर आई स्त्री ने चेहरे पर संशय के भाव लिए पूछा-
"कहिए इंस्पेक्टर साहब!"
 "आपके पड़ोस में औरत कैसे जली?
"कुछ पता नहीं, मैं अकेली रहती हूँ; नींद की दवा लेती हूँ।"

   "
समाज में तटस्थ लोगों की तादाद लगातार बढ़ रही है। क़ानून की मदद करने या पीड़ित को न्याय दिलानेवालों की लगातार कमी हो रही है। जब ख़ुद क़ानून के चंगुल में फँसते हैं तो कहते हैं
'मुझे अपनी न्याय-व्यवस्था में पूरा भरोसा है।' हक़ीक़त जानते सब हैं लेकिन लोग अपने तयशुदा ढर्रे पर ही चलना चाहते हैं। कौन झंझट मोल ले तो बस ख़ुद को न्यूट्रल दिखाओ..."
अपने अधीनस्थ अफ़सर से बुदबुदाता हुआ खिन्न तफ़तीश-अफ़सर अगले दरवाज़े की ओर अपने क़दम बढ़ाता है।    

©
रवीन्द्र सिंह यादव           


गुरुवार, 4 जून 2020

लॉकडाउन में गुलाब

आज 

एक अनमने ऊँघते उदास गुलाब को

ग़ौर से देखा

खिंची हुई थी 

भाल पर उसके 

चिंता की रेखा

सौंदर्यविहीन सूखी-सिकुड़ी सुमन पाँखें

अब झर जाने को हैं तत्पर

समय पर पड़ी नहीं नज़र 

कलियाँ फूल हुईं 

फूल खिले रहे किसी प्रतीक्षा में

ग़ाएब थी हलचल 

क़ैद थे फूलों में अर्थ ढूँढनेवाले 

गुलाब के फल 

पक जाने की राह पर हैं

लॉकडाउन के बाद 

फिर आने लगे हैं दीदा-वर 

चिर-प्रतीक्षित चमन में 

गुलाब के बीज 

मिल जाएँगे मिट्टी में 

अनुकूल माहौल में 

फिर उगेंगे, बढ़ेंगे; खिलेंगे  

नई उमंग-तरंग, तमन्नाओं के साथ 

नाज़ुक गुलाब के फूल की 

ख़ुशबू में तर हो 

रंगीन पंखुड़ियाँ 

फिर छुएगा कोई हाथ।  
  
© रवीन्द्र सिंह यादव         

बुधवार, 3 जून 2020

रंगभेद लील गया जॉर्ज फ़्लॉयड को

इंसानी रंगभेद 

इंसानी बुद्धि का नाजाएज़ फ़ितूर है 

बुद्धि का चरित्र 

विभाजन में भी विभाजन करना है 

इतना विभाजन 

कि वस्त्र का रेशा-रेशा 

पृथक-पृथक हो जाय 

ताकि इन्हें 

मन-मुताबिक़ तोड़ने-मोड़ने में

इच्छित ध्रुवीकरण होने में  

आसानी हो

सब कुछ 

उसके ख़याल के मुताबिक़ हो

नफ़रत का ताना-बाना 

ख़ेमा-बंदी का सूत्रधार हो 

कुछ लोग अपने आप को 

श्रेष्ठ सिद्ध करने में 

कामयाब हो गए हैं 

सभ्यता के विकास में 

व्यवस्था को हथियाने का नुस्ख़ा

विकसित / स्थापित करने में 

कामयाब हो गए हैं 

जो असंगठित थे

महान उद्देश्यों से बेख़बर / आलसी थे

भौतिकतावादी जीवन से बेअसर थे   

प्राकृतिक जीवन के पक्षधर थे 

वे चालाकी / धूर्तता में पिछड़ गए

अपने अंतरविरोधों में उलझ गए 


गौर-वर्ण या श्याम-वर्ण लेकर 

जन्मना व्यक्ति के वश में नहीं

भौगोलिक स्थितियाँ  

आवासीय परिस्थितियाँ

अनुवांशिक ख़ूबियाँ इत्यादि-इत्यादि  

आमतौर पर खाल का रंग 

तय करतीं हैं

सूरज की किरणें 

वैविध्य वरण करतीं हैं 


अमेरिका में व्यस्त सड़क पर 

हथकड़ी लगाकर 

मुँह के बल गिराकर 

अफ़्रीकी मूल के अमेरिकी नागरिक 

जॉर्ज फ़्लॉयड की गर्दन

घुटने से दबाता

क़रीब पौने 9 मिनट तक 

सरेआम तड़पाता  

मौत के मुहाने तक ले जाता 

अहंकारी बेरहम श्वेत-वर्णीय

पुलिस अधिकारी

दुनिया ने विस्मय से देखा

कमाल का  लोकतंत्र है अमेरिका 

जहाँ पुलिस-हत्याओं का रिकॉर्ड नहीं होता 

उस महिला की हिम्मत को सलाम 

जिसने वीडियो बनाते हुए 

बर्बरता को इतने नज़दीक से देखा  

फ़्लॉयड अब किस दुनिया में है 

किसी ने नहीं देखा 

फिलहाल भेदभाव की दुनिया 

हमेशा के लिए छोड़ गया 

मानवता पर काला धब्बा लग गया 

लेकिन अमेरिका में उठा 

नस्लीय श्रेष्ठता की 

दूषित मानसिकता के विरुद्ध 

रंगभेदी तूफ़ान बेक़ाबू हो उठा है

सभ्यता की सीढ़ियाँ चढ़ता समाज 

एक बार फिर बेनक़ाब हो गया है। 

© रवीन्द्र सिंह यादव       
    

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