शुक्रवार, 30 नवंबर 2018

समुंदरों को दिखा रहा हूँ


मैं अपनी  कश्ती  पार लाकर, 

समुंदरों   को  दिखा  रहा  हूँ। 


जीवन   के  ये  गीत  रचे जो, 

मज़लूमों   को  सुना  रहा हूँ। 


चला हूँ जब से कँटीले पथ पर, 

पाँव   के   छाले  छुपा  रहा हूँ। 


उतर  गया  हूँ  सागर तल में, 

प्यार  के  मोती  उठा  रहा हूँ। 


अहंकार    के    दावानल   में, 

प्रेम  की  बूँदें  गिरा  रहा   हूँ। 


जहाँ बुझ गया चाँद फ़लक का, 

चराग़  होना  सिखा  रहा  हूँ।   


इंसानियत    के    कारवाँ   में, 

जुड़ो  अभी   मैं  बुला  रहा  हूँ। 


उदास   बैठी   सूनी  घाटी  में, 

उम्मीद के फूल खिला रहा हूँ।  


अंधकार   से   डरना   छोड़ो, 

मैं  एक  दीपक  जला रहा  हूँ।  

© रवीन्द्र सिंह यादव


बुधवार, 28 नवंबर 2018

गोल्डन टॉयलेट


समाचार आया है -
"माल्या से छिनने वाला है गोल्डन टॉयलेट!"
संभवतः 
माल्या का 
मल-मूत्र महकता होगा 
अतः सोने की 
टॉयलेट सीट का ख़्याल 
मन में खटकता होगा 
19 नवम्बर को 
मनाया जाता है 
विश्व शौचालय दिवस 
सुनने को ऐसे समाचार 
आज हम हैं विवश 
मल में हो सकते हैं-
WBC, 
RBC, 
CYST,
OVA,
कृमि, बैक्टीरिया और फंजाई
इस ठग व्यवसायी को 
कौन समझाये भाई 
लंदन में एक लेखक ने 
कर दिया असहज खुलासा 
विलासता में डूबे 
शातिर शख़्स को 
कैसे मिले दिलासा  
देश से ले भागा रोकड़ा 
करके महा फ्रॉड 
विदेश में भी दिखलायी कला 
लेकिन घिर गया 
लगा न पाया दौड़ 
 क़लम घिसने वाले 
सदियों रहे गुमनाम 
गोल्डन सीट वाले 
टॉयलेट के मालिक 
चर्चा में दिलचस्पी से 
हो जाते हैं बदनाम 
हमारी जीवन शैली में 
सोने से जुड़ी है 
श्रेष्ठता की भावना
सोने की करते हैं 
लोग कामना 
सोने को आदर इतना 
भारत में महिलाऐं 
नहीं पहनती हैं 
सोने के बिछुआ 
यह समाचार पढ़कर 
आपको आश्चर्य हुआ?
© रवीन्द्र सिंह यादव 

मंगलवार, 27 नवंबर 2018

धूप (वर्ण पिरामिड )




ये 
धूप 
जागीर  
है सूर्य की  
तरसाती है 
महानगर में 
बेबस इंसान को। 







लो 
आयी 
रवीना 
चीरकर 
घना कुहाँसा 
एहसास लायी 
मख़मली धूप-सा। 



आ 
गयी 
सर्दी भी 
मख़मली 
धूप लेकर 
कुहाँसा छा रहा 
दृश्य अदृश्य होने। 



वो 
देखो 
सेकती 
गुनगुनी 
धूप छज्जे पे 
अख़बार लिये 
चाय पीती दादी माँ।  
 © रवीन्द्र सिंह यादव




शुक्रवार, 23 नवंबर 2018

स्त्री और स्वतंत्रता


अनिश्चितता 

असुरक्षा 

अस्थिरता का 

दौर था कभी 

तत्कालीन परिस्थितियोंवश

पूर्वाग्रही मंशा से  

स्त्री को 

जकड़ा गया 

वर्जना की सख़्त बेड़ियों में

वर्जनाओं की मज़बूत कड़ियों में  

सामाजिक नियमावली के 

सुनहरे कड़े जाल में 

स्वतंत्रता से 

रहे परे 

हर हाल में 

आज स्थिरता का 

अनुकूल दौर है 

क़ानून हैं 

सहूलियतें हैं 

अवसर हैं

भौतिकता का अंबार है

अपराध का बाज़ार है 

परिभाषित रिश्ते हैं

गौरव है

 गरिमा है  

पद है 

किंतु  

आज भी 

उसकी एक हद है 

थमा दिया गया उसे 

अदृश्य घोषणा-पत्र

जिसमें 

"डूज़ एन्ड डोंट" 

सीमाओं की लकीरें 

हाईलाइट हो जाती हैं 

फ्लोरोसेंट लाइट में 

चमकती रहती हैं

सतत एहसास दिलाने के लिए  

कि स्वतंत्रता दूर की कौड़ी है!
                       
    © रवीन्द्र सिंह यादव

सोमवार, 19 नवंबर 2018

नदी तुम माँ क्यों हो .....

नदी तुम माँ क्यों हो...?

सभ्यता की वाहक क्यों हो...?

आज ज़ार-ज़ार रोती क्यों हो...?   

बात पुराने ज़माने की है 

जब 

गूगल 

जीपीएस

स्मार्ट फोन  

कृत्रिम उपग्रह 

पृथ्वी के नक़्शे 

दिशासूचक यंत्र 

आदि नहीं थे 

एक आदमी

अपने झुण्ड से 

जंगल की भूलभुलैया-सी 

पगडंडियों पर चलते-चलते 

पैर की नस दबने / चढ़ने / तड़कने से 

भटककर छिटककर बिछड़ गया 

घिसटते-घिसटते 

अग्रसर हुआ 

ऊँचे टीले से 

साथियों को 

आवाज़ लगायी 

कोई सदा  लौट के आयी

बस प्रतिध्वनि ही 

निराश लौट आयी 

सुदूर क्षितिज तक 

व्याकुल थकी नज़र दौड़ायी 

घने वृक्षों के बीच 

नीलिमा नज़र आयी 

जीने की आस जागी 

आँखों में रौशनी जगमगायी

हिम्मत करके उतरा 

ऊँघती कटीली घाटियों में 

चला सुनसान वन में

उस नीलिमा की ओर 

दर्द सहते-सहते हौले-हौले 

पैर को जकड़ा 

नर्म वन लताओं से 

रास्ता तय किया 

एक टीला और मिला 

अब एक नदी नमूदार हुई

चलते-चलते तन से 

निचुड़ा पानी

प्यासे को लगा 

ख़त्म हो जायेगी कहानी 

बढ़ती प्यास ने 

दर्द विस्मित किया 

प्यासे और नदी के बीच 

दूरी न्यूनतर होती गयी 

नदी से कुछ ही दूरी पर 

मूर्छा आने लगी 

पाकर नदी का किनारा 

राहत की साँसें भी भारी हुईं 

तपती रेत में 

बोझिल क़दमों  से 

प्यासा चला 

उभरे पाँवों में 

छालों ने छला  

अब नदी का पानी 

कुछ ही क़दम दूर था 

पाँवों में प्यासे को 

ठंडक महसूस हुई 

लगा ज्यों माँ ने 

लू लगने पर 

तलवों में बकरी का दूध  

और प्याज़ का रस मला हो 

नस तड़की और 

गिर पड़ा औंधे मुँह 

चरम पर थी प्यास और पीर 

बस दो हाथ की दूरी पर था

कल-कल करता बहता 

नदिया का निर्मल नीर  

जलपक्षी जलक्रीड़ा में थे मग्न 

बह रही थी तपिश में 

राहतभरी शीतल पवन  

घिसटकर पानी तक 

पहुँचने की हिम्मत  रही 

एक लहर आयी 

मुँह को छुआ  

लगा जैसे माँ ने 

पिलाया हो पानी 

लगाकर ओक 

जीवन तरंगित हुआ

बिखरा जीवन आलोक 

बैठकर जीभर पानी पिया

जिजीबिषा जीत गयी 

पाकर क़ुदरत का वरदहस्त 

प्यास बुझाकर प्यासे ने  

नदी को माँ कहकर

श्रद्धा से सम्बोधित किया  

साधुवाद दिया 

यह ममता बढ़ती रही

कालान्तर में 

आस्था हो गयी  

इंसान ने नदी को 

माँ जैसा मान-सम्मान 

देने का विचार दिया

परम्पराओं-वर्जनाओं का 

रोपड़-अनुमोदन किया 

नदियों के किनारे 

सभ्यताओं ने 

पैर पसारने का  

अनुकूल निर्णय लिया 

जीवनदायिनी नदिया का 

आज हमने क्या हाल किया है?

समाज का सारा कल्मष 

नदियों में उढ़ेल दिया

क्या फ़ाएदा 

इस ज्ञान-विज्ञान 

आधुनिक तकनीक 

सभ्य समाज की 

तथाकथित समझदारी  का

जिसने इंसान को 

प्रकृति की गोद से 

जबरन अलहदा किया!! 

© रवीन्द्र सिंह यादव



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