साहित्य समाज का आईना है। भाव, विचार, दृष्टिकोण और अनुभूति का आतंरिक स्पर्श लोकदृष्टि के सर्जक हैं। यह सर्जना मानव मन को प्रभावित करती है और हमें संवेदना के शिखर की ओर ले जाती है। ज़माने की रफ़्तार के साथ ताल-सुर मिलाने का एक प्रयास आज (28-10-2016) अपनी यात्रा आरम्भ करता है...Copyright © रवीन्द्र सिंह यादव All Rights Reserved. Strict No Copy Policy. For Permission contact.
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यह रचना पढ़ने वाले के एहसासों से गुज़रती हुई उसे अतीत के उन ख़ास पलों में ले जाती हैं जहाँ क़ैद में विरह की पीड़ा भोग रहा एक मज़बूर शहंशाह अपनी महबूबा को टूटे दिल से याद कर रहा है उसकी सच्ची मोहब्बत आज भी बेमिशाल है ताज महल के रूप में।
जवाब देंहटाएंबार-बार पढ़ी यह रचना हर बार नया रंग बिखेर गयी।
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (02-10-2019) को "बापू जी का जन्मदिन" (चर्चा अंक- 3476) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
दर्द भरी नज़्म है, शाहजॅ॑हा के सभी ग़म विरह और बेटे द्वारा दी गई मानसिक ताड़ना का हर स्वर मुखरित हुआ।
जवाब देंहटाएंउम्दा/बेहतरीन।
बहुत ही मार्मिक नज़्म, दर्द भरे एहसासात को पिरोया है अल्फाज़ में लाज़बाब सृजन आदरणीय 👌)
जवाब देंहटाएंसादर