गुरुवार, 27 अप्रैल 2017

दास्तां



तेरी  हर शय

तेरी  हर  शर्त

है   क़बूल  मुझे ,

ज़िन्दगी  तू

अब  सिखा  दे

जीने  का उसूल  मुझे। 




कोई   गुज़रा

कोई  मुक़रा

कोई  सिमटा

अपने - अपने  दायरों में ,

मैं  भी एक गवाह  हूँ  सफ़र  का

यों   ही  न  भूल  मुझे।

ज़िन्दगी  तू

अब  सिखा  दे

जीने  का  उसूल  मुझे।  




दिल  में

उतर  जाता  है  कोई

तितली  सी  ज़हानत    लिए,

पंख  जाते   हैं  उलझ

काँटों  में

कहता  है   कोई

बेमुरब्बत   फूल   मुझे।

ज़िन्दगी  तू

अब  सिखा  दे

जीने  का  उसूल  मुझे।




मंज़िल  की  ओर

कारवाँ  बढ़ने  का

सिलसिला  चलता  रहा ,

हासिल  हो  न  हो

मक़सद

इंतज़ार  का   सिला

करना है वसूल मुझे।

ज़िन्दगी  तू

अब  सिखा  दे

जीने  का  उसूल  मुझे। 






ले    डूबेगा  एक  दिन

क़तरे    को

दरिया   बनने   का शौक़ (?)

दामन  से  लिपटकर

एक   दिन  सुनाएगा

दास्तां अपनी शूल मुझे।

ज़िन्दगी  तू

अब  सिखा  दे

जीने  का  उसूल  मुझे। 




वक़्त  फिसला  है  

रेत     की   तरह 

"रवीन्द्र "  के हाथों  से,

सज्दे  में झुक  गया  हूँ  

समझ   न 

पुल  से  गुज़रने  का महसूल  मुझे। 

ज़िन्दगी  तू

अब  सिखा  दे

जीने  का  उसूल  मुझे।  

@रवीन्द्र  सिंह  यादव


7 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज रविवार 29 दिसम्बर 2019 को साझा की गई है...... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

    जवाब देंहटाएं
  2. जीने का उसूल सीखना भी जरूरी है...
    बेहद लाजवाब सृजन
    वाह!!!

    जवाब देंहटाएं
  3. आपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा कल रविवार (18-04-2021) को चर्चा मंच   "ककड़ी खाने को करता मन"  (चर्चा अंक-4040)  पर भी होगी!--सूचना देने का उद्देश्य यह है कि आप उपरोक्त लिंक पर पधार कर चर्चा मंच के अंक का अवलोकन करे और अपनी मूल्यवान प्रतिक्रिया से अवगत करायें।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
    --

    जवाब देंहटाएं
  4. बहुत प्रभावी कविता रची रवीन्द्र जी आपने। यह ज़िन्दगी से कोई गुज़ारिश नहीं, जीने वाले का दर्द है।

    जवाब देंहटाएं
  5. सुंदर प्रस्तुति

    जवाब देंहटाएं
  6. ग़ज़ल देख ग़ज़ल की धार देख ,

    बेहतरीन ग़ज़ल कही है रवींद्र जी ने :

    वक़्त फिसला है

    रेत की तरह

    "रवीन्द्र " के हाथों से,

    सज्दे में झुक गया हूँ

    समझ न

    पुल से गुज़रने का महसूल मुझे।

    ज़िन्दगी तू

    अब सिखा दे

    जीने का उसूल मुझे।

    @रवीन्द्र सिंह यादव
    veerujan.blogspot.com

    जवाब देंहटाएं
  7. मंज़िल की ओर
    कारवाँ बढ़ने का
    सिलसिला चलता रहा ,
    हासिल हो न हो
    मक़सद
    इंतज़ार का सिला
    करना है वसूल मुझे।


    सुन्दर......

    जवाब देंहटाएं

आपकी टिप्पणी का स्वागत है.

विशिष्ट पोस्ट

अभिभूत

बालू की भीत बनाने वालो  अब मिट्टी की दीवार बना लो संकट संमुख देख  उन्मुख हो  संघर्ष से विमुख हो गए हो  अभिभूत शिथिल काया ले  निर्मल नीरव निर...