शनिवार, 19 जुलाई 2025

साँचा

मूल्य

संवेदना

संस्कार 

आशाएँ 

आकांक्षाएँ

एकत्र होती हैं 

एक सख़्त साँचे में 

ढलता है 

एक व्यक्तित्त्व

उम्मीदों के बिना भी 

जीते जाने के लिए

दुनिया के ज़ख़्मों पर 

नेह का लेप लगाने के लिए

यह सहज साँचा 

हमने अब खो दिया है 

भौतिकता के अंबार में 

बहुत नीचे दब गया है।   

©रवीन्द्र सिंह यादव 

 

6 टिप्‍पणियां:

  1. हजूर गजब कहे हैं | वकील साहिब नाराज हो सकते हैं :) क्योंकि सबसे मजबूत बना कर साँचा तोड़ देते हैं भगवान जी |

    जवाब देंहटाएं
  2. सादर प्रणाम सर।

    आपकी व्यंग्यपूर्ण टिप्पणी के आयाम बड़े व्यापक हैं।

    सादर आभार उत्साहवर्धन हेतु।

    जवाब देंहटाएं
  3. कितनी गहरी बात कही है आपने आपकी कविता के माध्यम से कि संवेदनाएँ और संस्कार ही किसी इंसान का असली व्यक्तित्व गढ़ते हैं। अब लोग उम्मीदों और आकांक्षाओं में उलझकर इंसानियत को पीछे छोड़ रहे हैं। मुझे लगता है, ये कविता जैसे हमें याद दिलाती है कि असली ताकत भीतर की नेकी और संवेदना में है, न कि बाहरी दिखावे में।

    जवाब देंहटाएं
  4. साँचा बंधन है जिसके स्वरूप में ढलकर सहजता से रहना आसान नहीं शायद...
    विचारणीय अभिव्यक्ति।
    सादर।
    -----

    जी नमस्ते,
    आपकी लिखी रचना शुक्रवार २५ जुलाई २०२५ के लिए साझा की गयी है
    पांच लिंकों का आनंद पर...
    आप भी सादर आमंत्रित हैं।
    सादर
    धन्यवाद।

    जवाब देंहटाएं
  5. साँचा बंधन है जिसके स्वरूप में ढलकर सहजता से रहना आसान नहीं शायद...
    विचारणीय अभिव्यक्ति।
    सादर।
    -----

    जी नमस्ते,
    आपकी लिखी रचना शुक्रवार २५ जुलाई २०२५ के लिए साझा की गयी है
    पांच लिंकों का आनंद पर...
    आप भी सादर आमंत्रित हैं।
    सादर
    धन्यवाद।

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