मंगलवार, 21 अप्रैल 2020

काल-चक्र

पराजयबोध लिए 

बैठा है मानव 

करोना-काल के 

दुष्कर दुर्दिन में 

भोर-बेला में 

शांत है नदी तट 

दोपहर में 

सन्नाटे को 

गले लगाए है 

वयोवृद्ध विशाल वट

विरह वेदना में 

विचलित है 

सिंदूरी संध्या 

झील में डूबता 

रक्ताभ सूरज 

तलाश रहा है 

विस्फारित नेत्रों से 

प्रकृति का 

कुशल चितेरा 

उदासियों का 

गठा गट्ठर लादे 

बीतेगी अपनी गति से 

अतल अवसाद की 

स्याह ओढ़नी ओढ़े 

झुँझलाई यामिनी

काल का कलन करता 

अभिमान को रौंदता

आएगा एक और सबेरा।

© रवीन्द्र सिंह यादव  

5 टिप्‍पणियां:

  1. हाँ हँसती-खिलखिलाती,गुनगुनाती
    शुभ्र किरणों का उपहार लिये
    सुबह तो आयेगी
    क्योंकि तम कितना भी गहन हो
    काल के अविराम रथ के
    पहियों तले कुचला ही जायेगा।
    ----
    बहुत सुंदर प्रकृति के मन के भाव उकेरने का कवि का सार्थक प्रयास।
    आशा से भरी रचना।
    लिखते रहिये। शुभकामनाएँ।
    सादर।

    जवाब देंहटाएं
  2. काल चक्र अपने नियम से पीछे नही हटेगा। आज निराशा का घोर अंधेरा है,कल आशा का सूर्य भी उदय होगा। वाह्ह्ह्ह्ह!
    आदरणीय सर बेहद उम्दा,सकारात्मक पंक्तियाँ प्रस्तुत की आपने। इस संकटकाल में इन पंक्तियों की आवश्यकता थी।
    साभार सादर प्रणाम 🙏

    जवाब देंहटाएं
  3. सकारात्मक शब्द-चित्रण ...

    जवाब देंहटाएं

आपकी टिप्पणी का स्वागत है.

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