रविवार, 27 सितंबर 2020

घुटन का दरिया

 कुछ लोग इसे 

उजाला कह रह हैं 

शायद उन्होंने 

उजाले की परिभाषा 

बरबस बदल दी है 

मुझे तो स्याह तमस में 

बस जुगनुओं की 

दीवानगी नज़र आती है

न्याय जब पहले से तय हो 

तो अर्जित कमाई 

बीवी के ज़ेवर 

बच्चों की ख़ुशियाँ और समय  

खोना क्यों ?

चुना जब कंटकाकीर्ण पथ 

तो ज़ख़्मों पर रोना क्यों?

घुटन का दरिया 

अकुलाहट का तूफ़ान 

प्रतीक्षा के दामन में 

घड़ियाँ गिन रहा है

शबनम में नहाई दूब पर 

बेधड़क चलने का हक 

किसी का छिन रहा है। 

© रवीन्द्र सिंह यादव


8 टिप्‍पणियां:

  1. हे कवि ! हमारे राम-राज्य में तो रात में भी न तो कहीं अँधेरा हो रहा है और न कहीं अन्याय हो रहा है.
    लगता है कि तुम किसी पड़ौसी देश के कुशासन का वर्णन कर रहे हो.
    वैसे बीबी के ज़ेवर बेचकर, अपना समय गंवाकर और अपना चैन खोकर भी किसी को न्याय न मिले तो शिक़ायत क्यों करना? हमारी न्याय-व्यवस्था का खर्चा-पानी चलाने के लिए किसी की बलि तो चढ़ानी ही पड़ेगी.

    जवाब देंहटाएं
  2. बहुत सुंदर और समसामयिक

    जवाब देंहटाएं
  3. सादर नमस्कार ,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (29-9 -2020 ) को "सीख" (चर्चा अंक-3839) पर भी होगी,आप भी सादर आमंत्रित हैं।
    ---
    कामिनी सिन्हा

    जवाब देंहटाएं
  4. हृदयस्पर्शी सृजन ।

    जवाब देंहटाएं
  5. शबनम में नहाई दूब पर

    बेधड़क चलने का हक

    किसी का छिन रहा है।
    ना जाने कितने हक छिन गए, देश गर्त में जा रहा है। युवा पीढ़ी निराशा के गहरे गर्त में उतरती जा रही है। उन्हें अपना भविष्य अंधेरे में नजर आ रहा है। जीवन के वे उच्च मूल्य खो गए हैं जिनके सहारे गरीबी में भी खुश रहा जाता है। कुछ समय पहले एक समाचार आया था कि एक चौदह साल की लड़की ने आत्महत्या कर ली क्योंकि उसे यह दुनिया जीने के काबिल नहीं लग रही थी। यदि ऐसा विचार हमारे बच्चों के दिलो दिमाग में आने लगा है तो स्थिति सचमुच चिंतनीय है। आपकी रचना ने मन में छिपे दबे असंतोष को प्रभावपूर्ण शब्दों में व्यक्त किया है।

    जवाब देंहटाएं
  6. सच बहुत कुछ पहले से ही तय रहता है, यही बड़ी बिडंबना है
    बहुत अच्छी प्रस्तुति

    जवाब देंहटाएं

आपकी टिप्पणी का स्वागत है.

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