कुछ लोग इसे
उजाला कह रह हैं
शायद उन्होंने
उजाले की परिभाषा
बरबस बदल दी है
मुझे तो स्याह तमस में
बस जुगनुओं की
दीवानगी नज़र आती है
न्याय जब पहले से तय हो
तो अर्जित कमाई
बीवी के ज़ेवर
बच्चों की ख़ुशियाँ और समय
खोना क्यों ?
चुना जब कंटकाकीर्ण पथ
तो ज़ख़्मों पर रोना क्यों?
घुटन का दरिया
अकुलाहट का तूफ़ान
प्रतीक्षा के दामन में
घड़ियाँ गिन रहा है
शबनम में नहाई दूब पर
बेधड़क चलने का हक
किसी का छिन रहा है।
© रवीन्द्र सिंह यादव
हे कवि ! हमारे राम-राज्य में तो रात में भी न तो कहीं अँधेरा हो रहा है और न कहीं अन्याय हो रहा है.
जवाब देंहटाएंलगता है कि तुम किसी पड़ौसी देश के कुशासन का वर्णन कर रहे हो.
वैसे बीबी के ज़ेवर बेचकर, अपना समय गंवाकर और अपना चैन खोकर भी किसी को न्याय न मिले तो शिक़ायत क्यों करना? हमारी न्याय-व्यवस्था का खर्चा-पानी चलाने के लिए किसी की बलि तो चढ़ानी ही पड़ेगी.
बहुत सुंदर और समसामयिक
जवाब देंहटाएंसादर नमस्कार ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (29-9 -2020 ) को "सीख" (चर्चा अंक-3839) पर भी होगी,आप भी सादर आमंत्रित हैं।
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कामिनी सिन्हा
बहुत सुन्दर
जवाब देंहटाएंहृदयस्पर्शी सृजन ।
जवाब देंहटाएंशबनम में नहाई दूब पर
जवाब देंहटाएंबेधड़क चलने का हक
किसी का छिन रहा है।
ना जाने कितने हक छिन गए, देश गर्त में जा रहा है। युवा पीढ़ी निराशा के गहरे गर्त में उतरती जा रही है। उन्हें अपना भविष्य अंधेरे में नजर आ रहा है। जीवन के वे उच्च मूल्य खो गए हैं जिनके सहारे गरीबी में भी खुश रहा जाता है। कुछ समय पहले एक समाचार आया था कि एक चौदह साल की लड़की ने आत्महत्या कर ली क्योंकि उसे यह दुनिया जीने के काबिल नहीं लग रही थी। यदि ऐसा विचार हमारे बच्चों के दिलो दिमाग में आने लगा है तो स्थिति सचमुच चिंतनीय है। आपकी रचना ने मन में छिपे दबे असंतोष को प्रभावपूर्ण शब्दों में व्यक्त किया है।
सच बहुत कुछ पहले से ही तय रहता है, यही बड़ी बिडंबना है
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी प्रस्तुति
बहुत सुंदर रचना।
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