छतनार वृक्ष की छाया में
दो पल सुस्ताने का मन है
वक़्त गुज़रने की चिंता में
अनवरत चलने का वज़्न है
कभी बहती कभी थमती है बड़ी मनमौजन है पुरवाई
किसी को कब समझ आई अरे यह तो बड़ी है हरजाई
बहती नदिया थम-सी गई लगती है
श्वेत बादल सृजन श्रृंगार के लिए ठिठके हैं
जल-दर्पण में मधुर मुस्कान का जादू नयनाभिराम
पुरवाई फिर बही सरसराती
अनमने शजर की उनींदी शाख़ का
एक सूखा पत्ता
गिरा नदिया के पानी में
बेचारा अभागा अनाथ हो गया
पलभर में दृश्य बिखरा हुआ पाया
जल ने ख़ुद को हलचलभरा पाया
बीच भँवर का क़िस्सा कहे कौन
किनारा-किनारा कभी मिल न पाया
लहरों का अस्तित्त्व साहिल पर
हो आश्रयविहीन विलीन हो गया
सदियों से प्यासा है तट नदिया का
पर्णविहीन जवासा
कलरव नाद में लवलीन हो गया
शुभ्र वर्ण बादल का श्रृंगार हो पाया न हो पाया!
मैंने ख़ुद को सफ़र में चलते हुए पाया।
सादर नमस्कार,
जवाब देंहटाएंआपकी प्रविष्टि् की चर्चा शुक्रवार ( 25-09-2020) को "मत कहो, आकाश में कुहरा घना है" (चर्चा अंक-3835) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है.
…
"मीना भारद्वाज"
विश्रांति प्रदान करती रचना । आभार ।
जवाब देंहटाएंजी नमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी लिखी रचना शुक्रवार २५ सितंबर २०२० के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।
सुंदर लेखन
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर
जवाब देंहटाएंसुंदर लेखन....
जवाब देंहटाएंबेहद खूबसूरत रचना।
जवाब देंहटाएंकभी बहती कभी थमती है बड़ी मनमौजन है पुरवाई
जवाब देंहटाएंकिसी को कब समझ आई अरे यह तो बड़ी है हरजाई
मन की विश्रांति... वाह!!!
बहुत ही सुन्दर मनभावन सृजन।
जीवन के आरोह-अवरोह की सुंदर अभिव्यक्ति।
जवाब देंहटाएंसादर
जीवन के उतर-चढाव को दर्शाती बहुत सुंदर सृजन ,सादर नमन आपको
जवाब देंहटाएंबहुत खूब
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