आग धधक रही है
दिखलाई नहीं देती
परिवेश में रह-रहकर गूँजती
दर्दनाक चीख़
सुनाई नहीं देती
लगता है तुम
संवेदना की फ़सल
चट कर गए हो
तुम ज़िंदा हो
लेकिन मर गए हो
मुरझाए मुर्दा-से समाज का
क्या कसूर
सरकारों से कौन कहे
कि तुम मूर्ख और अहंकारी हो
है यह कवि का दस्तूर।
© रवीन्द्र सिंह यादव
हे निर्भीक कवि ! तुम किसको मूर्ख और अहंकारी कह रहे हो?
जवाब देंहटाएंबहरों को तुम्हारी बात सुनाई कैसे देगी?
गोपेश सर जी की प्रथम लाइने ले रही हूं,
जवाब देंहटाएंहे निर्भीक कवि तुम मरी हुई सरकार को क्यों झंझोर रहे हो,
नैतिकता का पतन अब खड़े होकर नहीं बैठ कर देखो
आदरणीय रविंद्र जी आप वाकई में एक सच्चे लेखक हैं जो हमेशा ही अपनी कविता के जरिए वास्तविकता को पाठकों के समक्ष लाने का प्रयास करते हैं
. कम शब्दों में ही आपने समाज अर्थव्यवस्था की टूटती रीढ़ को हम सबके सामने प्रस्तुत कर दिया..👌👍
वाकई अनुज रविन्द्र जी ,आप एक निर्भीक कवि है । समाज की असलियत को अपने शब्दों के माध्यम से सामने लाते हैं ।
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