गुरुवार, 1 अक्तूबर 2020

पागल कहते हैं लोग

ज़माना 

बहुत बुरा है 

कहते हुए 

सुने जाते हैं लोग 

मझदार से निकालकर 

किनारे पर कश्ती डुबोना

ऐसा तो नहीं चाहते हैं लोग 

दरीचों के सीनों में 

दफ़्न हैं राज़ कितने 

आहिस्ता-आहिस्ता 

बताते हैं लोग 

दास्तान-ए-हसरत 

मुसाफ़िर कब सुनाते हैं 

गले लगाने से पहले 

आजमाते हैं लोग

बिजलियाँ अक्सर 

गिरती रहतीं हैं 

फिर भी आशियाना 

बनाते हैं लोग

वो माँगता फिर रहा है 

औरों के लिए दुआ 

न जाने क्यों उसे 

पागल कहते हैं लोग। 

© रवीन्द्र सिंह यादव 

 

7 टिप्‍पणियां:

  1. जी नमस्ते,
    आपकी लिखी रचना शुक्रवार २ अक्टूबर २०२० के लिए साझा की गयी है
    पांच लिंकों का आनंद पर...
    आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।

    जवाब देंहटाएं
  2. भला कौन चाहेगा किनारे पर किश्ती डूबाना ... बहुत बढ़िया ।

    जवाब देंहटाएं
  3. जो दूसरों की भलाई चाहता है उसे लोग पागल क्यूँ ना समझें। आखिर आजके भौतिक वादी संसार में इसकी जरूरत ही क्या है। सार्थक व्यंग रवींद्र जी। मुझे अपनी रीडिंग लिस्ट मे आपकी रचनाएँ ही नज़र नहीं आती । ना जाने क्यूँ??

    जवाब देंहटाएं
  4. आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल रविवार (04-10-2020) को     "एहसास के गुँचे"  (चर्चा अंक - 3844)    पर भी होगी। 
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।  
    सादर...! 
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'  
    --

    जवाब देंहटाएं

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