ज़माना
बहुत बुरा है
कहते हुए
सुने जाते हैं लोग
मझदार से निकालकर
किनारे पर कश्ती डुबोना
ऐसा तो नहीं चाहते हैं लोग
दरीचों के सीनों में
दफ़्न हैं राज़ कितने
आहिस्ता-आहिस्ता
बताते हैं लोग
दास्तान-ए-हसरत
मुसाफ़िर कब सुनाते हैं
गले लगाने से पहले
आजमाते हैं लोग
बिजलियाँ अक्सर
गिरती रहतीं हैं
फिर भी आशियाना
बनाते हैं लोग
वो माँगता फिर रहा है
औरों के लिए दुआ
न जाने क्यों उसे
पागल कहते हैं लोग।
© रवीन्द्र सिंह यादव
जी नमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी लिखी रचना शुक्रवार २ अक्टूबर २०२० के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।
सुन्दर रचना।
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर
जवाब देंहटाएंभला कौन चाहेगा किनारे पर किश्ती डूबाना ... बहुत बढ़िया ।
जवाब देंहटाएंजो दूसरों की भलाई चाहता है उसे लोग पागल क्यूँ ना समझें। आखिर आजके भौतिक वादी संसार में इसकी जरूरत ही क्या है। सार्थक व्यंग रवींद्र जी। मुझे अपनी रीडिंग लिस्ट मे आपकी रचनाएँ ही नज़र नहीं आती । ना जाने क्यूँ??
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल रविवार (04-10-2020) को "एहसास के गुँचे" (चर्चा अंक - 3844) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
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बहुत सुंदर रचना।
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