पिछले पचास वर्ष
हम
इतने स्वकेन्द्रित तो नहीं थे
मानसिकता के धरातल पर
जहाँ आज हैं
तब इतने तो नहीं थे
दुनिया
विकास करती रही
परमाणु बम बनाने की
अंधी दौड़ चलती रही
भौतिकता के विस्तार में
संवेदनाविहीन हुई
व्यक्ति की पाशविक कुंठा
उत्तरोत्तर विकसित हुई
भूख की चिंता
अब व्यर्थ का चिंतन है
हथियारों की होड़ में
लुट रहा धन है
भारत ने
वर्ण-व्यवस्था का
निरर्थक विकास किया
और वर्गों में बँटी
दुनिया में
कुछ आगे हुआ
तो कहीं
बहुत पीछे रह गया
व्यवस्था बदलने आए
'तीस मार ख़ान'
'बंदर के हाथ लगी मशाल'
जी नमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी लिखी रचना आज शनिवार 20 मार्च 2021 को शाम 5 बजे साझा की गई है......... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन " पर आप भी सादर आमंत्रित हैं ....धन्यवाद! ,
ये समस्या आज की तो नहीं है । बस पहले ये दिखती नहीं थी आज सामने भी वही ला रहे जिन्होंने इसको बढ़ावा दिया ।केवल अपने लाभ हेतु । चाहे वो धर्म के नाम पर या वर्ण व्यवस्था के नाम पर ।
जवाब देंहटाएंबस आम जनता छली जा रही ,
विचारणीय रचना ।
संवेदनशील विषय ।
जवाब देंहटाएंसब की अपनी सोच।
गंभीर विषय लिए बहुत ही सुंदर रचना , सादर नमन
जवाब देंहटाएंसार्थक रचना जो समसामयिक अव्यवस्थाओ पर चिंतन करती रचना के लिए हार्दिक शुभकामनाएं आदरणीय रवींद्र जी🙏🙏
जवाब देंहटाएंसुन्दर रचना।
जवाब देंहटाएंविकास के सबके अपने मापदंड हैं... मनुष्यता और प्रकृति के साथ सामंजस्य बनाकर जीने को जो प्रेरित करे फिलहाल उसी विकास मोडल की जरूरत है....
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