रविवार, 8 दिसंबर 2024

अभिभूत

बालू की भीत बनाने वालो 

अब मिट्टी की दीवार बना लो

संकट संमुख देख 

उन्मुख हो 

संघर्ष से विमुख हो गए हो 

अभिभूत शिथिल काया ले 

निर्मल नीरव निर्झर के मार्ग में 

हे शिल्पी! 

शिलाखंड पर कब से बैठे हो

उठो! मुक्ति-मार्ग संशय से मिलता तो

हर भटके राही को मंज़िल की क्यों फ़िक्र हो!

करो प्रहार हथौड़ा हाथ है 

सुगढ़ मूर्ति साकार हो! 

©रवीन्द्र सिंह यादव    



शब्दार्थ सम्मुख 

1. बालू = रेत, बालुका , Sand 

2. भीत = भित्ति , दीवार , Wall 

3. सम्मुख = सामने, आगे , समक्ष  

4. उन्मुख = ऊपर की ओर ताकता हुआ, उत्कंठा से देखता हुआ  

5. विमुख = मुँह फेरना, अलग होना, जिसके मुँह न हो, मुखरहित 

 6. अभिभूत = हारा हुआ , पराजित 

7. शिथिल = ढीला-ढाला, थका हुआ, 


 

7 टिप्‍पणियां:

  1. निराश,विरक्त मन के लिए सकारात्मकता का आह्वान करती सुंदर अभिव्यक्ति।
    सादर।
    -------
    जी नमस्ते,
    आपकी लिखी रचना शुक्रवार १३ दिसम्बर २०२४ के लिए साझा की गयी है
    पांच लिंकों का आनंद पर...
    आप भी सादर आमंत्रित हैं।
    सादर
    धन्यवाद।


    जवाब देंहटाएं
  2. संशय को त्याग कर्मपथ पर बढ़ने का आह्वान करती सुंदर रचना

    जवाब देंहटाएं
  3. उठो! मुक्ति-मार्ग संशय से मिलता तो

    हर भटके राही को मंज़िल की क्यों फ़िक्र हो
    लाजवाब उद्यम आह्वान👌👌🙏🙏
    उद्यमेन हि सिध्यन्ति कार्याणि न मनोरथैः । न हि सुप्तस्य सिंहस्य प्रविशन्ति मुखे मृगाः

    जवाब देंहटाएं
  4. बहुत सुन्दर..,कर्मयोग का आह्वान करती बेहतरीन रचना ।

    जवाब देंहटाएं
  5. बहुत सुंदर प्यारी सी रचना

    जवाब देंहटाएं
  6. पढ़ते-पढ़ते लगा जैसे किसी सोते हुए को किसी ने झकझोर के उठा दिया हो। आपकी कविता की लाइनो में इतनी ताक़त है कि खुद से भी लड़ने का हौसला आ जाए। आजकल लोग डर के या थक के बैठ जाते हैं, और आपने उन्हीं से सीधे बात की है। ये कविता नहीं, एक सीधा बुलावा है उठने का, लड़ने का, फिर से कुछ गढ़ने का।

    जवाब देंहटाएं

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