तुम्हें घोड़े को
रथ में जोतना था
तुम्हें उससे
ताँगा खिंचवाना था
तुम्हें उस पर सवार हो
युद्ध लड़ने थे
तुम्हें उस पर सवार हो
पहाड़ चढ़ने थे
तुम्हारे अपने शौक
और विवशताएँ थीं
घोड़े की अपनी
क्या-क्या लालसाएँ थीं...
ककरीली-पथरीली ज़मीन पर
तेज़ रफ़्तार से दौड़ते-दौड़ते
उसके खुर लहूलुहान न हों
तुम्हारे लक्ष्य में व्यवधान न हो
तो तुमने ठोक दीं
या ठुकवा दीं
लोहे की सख़्त नालें
घोड़े के खुरों में!
दर्दनाक!
और तुम ख़ुद को
सभ्य कहते हो?
संवेदनशील होने का
सुसज्जित ढोंग करते हो!
शर्मनाक!
© रवीन्द्र सिंह यादव
आदरणीय सर, सादर प्रणाम। आपकी यह बहुत भावपूर्ण और हृदय को झकझोर देने वाली रचना भीत दिनों के बाद पढ़ने का सुअवसर मिला। सच है हम मनुष्य मनोरंजन के नाम पर इन मूक जीवों के साथ कितनी हिंसा करते हैं और फिर यह वाक्य कह कर "मुझे पशुओं से बहुत प्यार है, मन अपने पालतू पशु का बहुत प्यार से ध्यान रखता/रखती हूँ कह कर सम्वेदनशीलता का ढोंग करते हैं। हार्दिक आभार इस रचना के लिए व आपको पुनः प्रणाम। एक अनुरोध भी कि कृपया मेरे ब्लॉग पर आ जर मुझे अपना आशीष दें ।अपने ब्लॉग काव्य तरंगिनि पर मैं ने कुछ नई रचनाएँ डाली है और चल मेरी डायरी नाम का एक नया ब्लॉग आरंभ किया है जो मेरी कृज्ञता डायरी का हिस्सा है। आपसे अनुरोध है अपना आशीष दें। पुनः प्रणाम।
जवाब देंहटाएंमहत्वकांक्षाओं के आगे सभ्यता की आयु अक्सर समाप्त हो जाया करती है। शेष रहता तो मात्र सभ्यता का झूठा आवरण जो समय के साथ जीर्ण हो जाता है।
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर पंक्तियाँ हैं सर। मार्मिक,संकेतयुक्त एवं महत्वपूर्ण संदेश देती आपकी इस कविता को प्रणाम 🙏
सुन्दर
जवाब देंहटाएंवाह!अनुज रविन्द्र जी , दिल को अंदर तक स्पर्श कर गई आपकी रचना । अपनी सुविधा के लिए हम इंसान इन मूक प्राणियों पर कितनें अत्याचार करते हैं ।
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