पढ़ा होगा आपने कभी
नीड़ का निर्माण
अब पढ़ते रहिए
भीड़ का निर्माण
मनोवैज्ञानिक
समाजशास्त्री
करते रहे शोध
भीड़ के चरित्र पर
राजनीति ने लाद दी
अपनी मनोकामनाएँ भीड़ पर
अंतर में छाए अँधेरों में
उभरते हैं बिंब लिए उन्मादी उमंगें
साझा सहमति से उभरती हैं
विनाश की तीखी तीव्र तरंगें
या किसी और के द्वारा तय
लक्ष्य की ओर
मुड़ जाती है भीड़...
क्योंकि
भीड़ का कोई धर्म नहीं होता
बुध्दि, विवेक, मर्म नहीं होता।
©रवीन्द्र सिंह यादव
अंधी भीड़ रौंदती है सभ्यताओं को,
जवाब देंहटाएंपाँवों के रक्तरंजित धब्बे,मानवीयता भुला
लिखते हैं क्रूरता का इतिहास...।
समसामायिक सराहनीय अभिव्यक्ति।
सादर।
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जी नमस्ते,
आपकी लिखी रचना मंगलवार १७ अक्टूबर२०२३ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
बहुत सुंदर रचना
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर भाई रविन्द्र जी, यथार्थ परक लेखन।
जवाब देंहटाएंवैसे भीड़ का लक्ष्य होता ही कब हैं उन्माद ही होता है।
वाह
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुन्दर सार्थक समसामयिक यथार्थ परक रचना आदरणीय सादर
जवाब देंहटाएंआपकी लिखी रचना "पांच लिंकों के आनन्द में" रविवार 22 अक्टूबर 2023 को लिंक की जाएगी .... https://halchalwith5links.blogspot.com पर आप भी आइएगा ... धन्यवाद! !
जवाब देंहटाएंबिलकुल सही बात।
जवाब देंहटाएंकुछ वर्ष पहले मैंने भी एक "भीड़" शर्शक पर कविता लिखी थी।