गोधूलि वेला बीतने पर
तम के तट पर
उतर रही थी यामिनी
उजाले क़िस्तों में
ख़ुद-कुशी कर रहे थे
बेसुरे संगीत में
चीख़ उठी थी रागिनी
बसेरों में पंछी लौट चुके थे
तम के गहराने पर आश्वस्त
उल्लू-चमगादड़
आह्लादित हो चुके थे
21-22 दिसंबर साल की सबसे लंबी रात
सबेरा होने के पूर्वाग्रह से भयभीत थी
चाहती थी और लंबी होना
तो मुर्ग़ों को बाँग न देने के लिए
धमका दिया
मुर्ग़े आराम-तलबी के ग़ुलाम थे तो चुप रहे
कोहरे से भी साँठगाँठ हुई
फिर भी सुबह हो गई
उजालों की बाढ़ में
अँधेरा ग़ाएब हो गया
वक़्त की ठोकर में
तम का अहंकार ढह गया।
©रवीन्द्र सिंह यादव