वे बच्चे अब कहाँ हैं ?
जो रुक जाया करते थे
रास्ते में पड़े
असहाय घायल को उठाकर
यथासंभव मदद करने
वक़्त ज़ाया होने
कपड़े ख़ून से सन जाने की
फ़िक्र किए बग़ैर
पवित्र विचारों का
पौधा रोपते थे
वे तड़पते घायल का
सिर्फ़ वीडियो नहीं बनाते थे
संवेदना के गहरे गीत रचते थे।
© रवीन्द्र सिंह यादव
जी नमस्ते ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (०१-०१-२०२३) को 'नूतन का अभिनन्दन' (चर्चा अंक-४६३२) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
बढ़िया सवाल..वे अब भी मिलते हैं पर कम.
जवाब देंहटाएंवे बच्चे अब बड़े हो गए रवींद्रजी। हम और आप हैं वो बच्चे। हाँ, अब जो बच्चे हैं उनमें भी ऐसे कुछ बच्चे हैं परंतु संख्या उनकी बहुत कम है
जवाब देंहटाएंआदरणीय रवीन्द्र सिंह यादव जी, नमस्ते 🙏❗️ आपने आज के समय में असंवेदनशील सामाजिक चेतना पर सही प्रश्नों उठाये हैं. हार्दिक साधुवाद! नव वर्ष की शुभकामनायें 🌹❗️--ब्रजेन्द्र नाथ
जवाब देंहटाएंनववर्ष की हार्दिक शुभकामनायें ... रवींद्र जी, बड़ी सटीक रचना है ये
जवाब देंहटाएंबहुत कम ही मिलते हैं पुरानी नस्ल के वह बच्चे। आज के अधिकांश बच्चे या तो अपने मोबाइल पर किसी दोस्त से बातें करते दुर्घटना-स्थल के पास से उस वाक़ये से अनजान निकल जाते हैं या देख लेते हैं तो घटना-स्थल का वीडियो बनाने लग जाते हैं। सटीक रचना, भाई रवीन्द्र जी!
जवाब देंहटाएंमशीन युग में मानव भी संवेदनाओं से दूर होकर मशीन-सा ही हो गया है।यह गंभीर विषय है जिस पर आपकी लेखनी चिंता व्यक्त कर रही है और यही एक लेखक का कर्तव्य भी है।आभार सर इन पंक्तियों के लिए 🙏
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