शनिवार, 19 अक्तूबर 2019

ख़िज़ाँ ने फिर अपना रुख़ क्यों मोड़ा है?




मिटकर मेहंदी को

रचते सबने देखा है,

उजड़कर मोहब्बत को

रंग लाते देखा है?


चमन में बहारों का

बस वक़्त थोड़ा है,

ख़िज़ाँ ने फिर अपना

रुख़ क्यों मोड़ा है?


ज़माने के सितम से

न छूटता दामन है,

जुदाई से बड़ा

भला कोई इम्तिहान है?


मज़बूरी के दायरों में

हसरतें दिन-रात पलीं,

मचलती उम्मीदें

कब क़दम मिलाकर चलीं? 


दुनिया में वफ़ा की आबरू है

साथ ख़ौफ़-ए-जफ़ा है,

ज़मीं-आसमां किसी बेआसरा से

क्यों इतना ख़फ़ा हैं?

© रवीन्द्र सिंह यादव

14 टिप्‍पणियां:

  1. दुनिया में वफ़ा की आबरू है

    साथ ख़ौफ़-ए-जफ़ा है,

    ज़मीं-आसमां किसी बेआसरा से

    क्यों इतना ख़फ़ा हैं?

    मन को उकेर कर निचोड़ दिया है आपने अपनी भावनाओं को इस रचना में ।
    बहुत-बहुत बधाई ।

    जवाब देंहटाएं
  2. सवाल करने के बजाय साहिर का ये नग्मा गुनगुनाइए -
    'हमने तो जब कलियाँ मांगीं,
    काँटों का हार मिला,
    जाने वो कैसे लोग थे जिनके,
    प्यार को प्यार मिला.'

    जवाब देंहटाएं
  3. "उजड़कर मोहब्बत को
    रंग लाते देखा है?"...
    बारहा उजड़ते मोहब्बत को ही रंग लाते देखा है ...
    जो मिले नहीं जीते जी ..
    जहान ने उन बिछुड़े प्रेमों को ही माना अनोखा है ....
    हमें तो लग रहा कि हमें 'एक दूजे के लिए' का आनंद बख़्शी जी का गीत गाना चाहिए -
    "हम तुम दोनों जब मिल जाएंगे -2
    एक नया इतिहास बनाएंगे
    और अगर हम न मिल पाये तो-2
    तो भी एक नया इतिहास बनाएंगे .. "..- ☺

    जवाब देंहटाएं
  4. ... वाह-वाह खिजाओं में आज.. ये कौन सा नया रंग घुल गया कभी मेहंदी तो कभी मचलती उम्मीदों को एक नया आसमा मिल गया.... बहुत दिनों के बाद लीक से कुछ हटकर आपने लिखा... आदरणीय रविंद्र जी मुझे आपकी रचनाओं में सबसे अच्छी बात लगती है कि आप हमेशा लयबद्ध लिखते हो... रचना की सारी पंक्तियां एक दूसरे से अंत में आकर जुड़ जाती है ये आपकी कविताओं में झलकती बहुत ही खूबसूरत विद्या है...!

    जवाब देंहटाएं
  5. वाह उम्दा भाई रविन्द्र जी।

    नाकाम और एक तरफी
    चाहत की उम्र बड़ी होती है

    जिंदगी भर आँखें धुंआ
    दिल मे नमी होती है

    क्योंकि जो मिलता है,
    उस मे हकीकत ज्यादा
    कद्र कम होती है,

    जो नही मिलता उसमे
    कद्र ज्यादा और हकीकत
    कम होती है।
    कुसुम कोठारी।

    जवाब देंहटाएं
  6. वाह,वाह ...क्या बात है ..!!लाजवाब!!रविन्द्र जी ।
    मिटकर मेंहदी को रचते सबने देखा है ,उजडकर मुहब्बत को रंग लाते देखा है ? वाह!!

    जवाब देंहटाएं
  7. जी नमस्ते,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (२० -१०-२०१९ ) को " बस करो..!! "(चर्चा अंक- ३४९४) पर भी होगी।
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।

    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    आप भी सादर आमंत्रित है
    ….
    अनीता सैनी

    जवाब देंहटाएं
  8. बहुत अच्छी लगी ये अभिव्यक्ति भी रवींद्रजी।

    जवाब देंहटाएं
  9. –जितने मोहब्बत के उदाहरण बने सब तो उजड़े ही दिखते हैं..
    –सच्चाई ही तो बताया खिंजा ने अपना रुख मोड़कर कि बहार में अति उत्साहित होकर अपने दायित्व से ना मुख मोड़ लो
    –सारे सवाल सामयिक सार्थक सन्देश है
    उम्दा सृजन के लिए बधाई

    जवाब देंहटाएं
  10. जब समय अपने अनुकूल नहीं होता है सबकुछ व्यर्थ लगता है
    बहुत अच्छी प्रस्तुति

    जवाब देंहटाएं
  11. Ravindra Singh Yadav ji, blog tak aane aur उत्साह बढ़ाने के लिए धन्यवाद।
    isi se कलम और लिखने वाले दोनों को ही ऊर्जा मिल जाती हैं....और लिखने की। ..अच्छा लिखने की। .आगे बढ़ाने की ...बहुत बहुत आभार उत्साह बढ़ाने के लिए युहीं साथ बनाये रखें 
    ************
    ************
    ***********

    मज़बूरी के दायरों में

    हसरतें दिन-रात पलीं,

    hmmm...aajkal har kahin yahii haal he...sab ke dilon me aadhi adhuri hasrton ke tajmehal bne pdhe hain aur sab waah wah keh rhe hain

    मिटकर मेहंदी को

    रचते सबने देखा है,

    bas yahi ik aas he...pis to rahen he ...bas rang bhi khil uthe ik din mehndi ki trhaa


    bahut achhi rchnaa hui he...bdhaayi

    जवाब देंहटाएं
  12. वाह आदरणीय सर बहुत सुंदर 👌
    सादर नमन 🙏

    जवाब देंहटाएं
  13. मज़बूरी के दायरों में
    हसरतें दिन-रात पलीं,
    मचलती उम्मीदें
    कब क़दम मिलाकर चलीं?
    वाह!!!
    बहुत सुन्दर सटीक एवं सार्थक सृजन...

    जवाब देंहटाएं

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