शनिवार, 10 जुलाई 2021

सूखती नदी और बादल की चिंता

 



सूखती नदी 

         नदियों पर बनते बाँध आधुनिकता से परिपूर्ण मानव जीवन के लिए ऊर्जा की तमाम ज़रूरतें पूरी करते हैं वहीं बाँधों से निकलीं नहरें विस्तृत क्षेत्र में कृषि हेतु सिंचाई की सुविधा उपलब्ध करातीं हैं। एक नदी बाँध से आगे के अपने मार्ग पर बहते-बहते सिकुड़ते किनारों को लेकर व्यथित है। बादल नदी के ऊपर मड़राते हैं तब नदी की पीड़ा कुछ यों उभरती है-  

सुनो बादल! फिर आ जाओ एक बार!

जल-दर्पण में मुखड़ा फिर देखो एक बार।

सिमट रहे तटबंध 

उदास है नाविक,

बरसो आकर 

ऋतु-चक्र स्वाभाविक,

बँधी है नाव 

रेत पड़ी पतवार!

सुनो बादल! फिर आ जाओ एक बार!


क़द मेरा लघुतम हुआ जाता है,

मुझे अस्तित्त्व का संकट सताता है,

पंछी उड़े जा पहुँचे किसी और पड़ाव,

लहराती लू आती करती जल में ठहराव,

नभ से धरती पर आ जाओ 

सूने खेतों में पड़ गई गहरी दरार!

सुनो बादल! फिर आ जाओ एक बार!


भँवर स्मृतियों का 

मेरे भीतर पागल हो रहा है,

संगीत सृष्टि का 

जाग जाएगा 

बसंत के बाद सो रहा है,

मगरमच्छ घड़ियाल भी 

एक दिन साथ छोड़कर चल देंगे,

मेरे अब तक पालन-पोषण का 

निष्ठुर बेस्वाद कसैला फल देंगे,

चीज़ें तो नीचे ही गिरतीं हैं 

बरसो! जुड़े रहें सहअस्तित्त्व के तार!

सुनो बादल! फिर आ जाओ एक बार!


बादल की चिंता

बादल ने नदी की पीड़ा को शिद्दत से समझा और दूरदृष्टा के किरदार में आकर कुछ यों कहा-

सुन! ओ भोली नदी!

यह तो दुखों की सदी!

मैं पतझड़ के पत्ते-सा न गिरता हूँ,

यायावर-सा ठेठ सच लिए फिरता हूँ,

सत्ता सन्नाटे का जाल 

चुपचाप बुन रही है,

उन्माद के अंधड़ में 

मानवता सर धुन रही है 

सुनो नदी!

तुम्हारा प्रवाह 

अनवरत रह सकता है,

तुम्हारा निर्मल नीर 

कल-कल बह सकता है 

आदमी से पूछो...

क्या वह 

तुम्हारे बिन रह सकता है?

तुम्हारे तटबंध 

सुषमित सौंदर्यवान हरे-भरे हो सकते हैं,

किनारे कर्णप्रिय कलरव से भरे हो सकते हैं,

आदमी से कहो! 

बस, तूने हद पार कर दी!

सुन! ओ भोली नदी!


मैं बरसूँ 

तुम्हारे रूप-लावण्य के लिए!

या सहेजूँ अपना नीर 

परम ध्येय धन्य के लिए!

क्या पता किस दिन 

किसी सत्ताधीश का विवेक मर जाए!

उसकी चपल चंचला उँगली से 

परमाणु-बटन दब जाए!

परमाणु बम की असीमित ऊर्जा से 

जल सकते हैं ज़मीं-आसमां,

उस दिन तुम्हें ही पुकारेंगे पीड़ा से भरे लोग 

हाय! नदी माँ, हाय! नदी माँ!

मुझे तो बरसना ही है, 

मत कहो बेदर्दी!

सुन! ओ भोली नदी!

© रवीन्द्र सिंह यादव

10 टिप्‍पणियां:

  1. वाह!अनुज रविन्द्र जी ,बेहतरीन सृजन । नदी और बादल के संवाद ,आज की वास्तविकता का दर्शन
    कराते हैं और साथ ही भविष्य की चिंता भी ।

    जवाब देंहटाएं
  2. जी नमस्ते ,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार(२१-०७-२०२१) को
    'सावन'(चर्चा अंक- ४१३२)
    पर भी होगी।
    आप भी सादर आमंत्रित है।
    सादर

    जवाब देंहटाएं
  3. मैं पतझड़ के पत्ते-सा न गिरता हूँ,
    यायावर-सा ठेठ सच लिए फिरता हूँ,
    निःशब्द करती रचना - - गहन अर्थ के साथ कथोपकथन करती हुई बढ़ते चली जा रही हो जैसे सुदूर मुहाने की ओर, साधुवाद आदरणीय।

    जवाब देंहटाएं
  4. अत्यंत सार पूर्ण अभिव्यक्ति!!

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  5. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

    जवाब देंहटाएं
  6. आदमी से कहो!
    बस, तूने हद पार कर दी!
    सुन! ओ भोली नदी!
    भविष्य की चिंता को व्यक्त करता भावपूर्ण सृजन सर!

    प्रकृति के साथ हो रही हदें पार,
    जिससे विलुप्त हो रहा जन्तुओं का अस्तित्व आज,
    दूषित हो रही हवायें और जल की धार,
    शुद्ध हवा और पानी को हो रहें मोहताज,
    फिर भी नहीं सुधर रहा ये इंसान!!

    जवाब देंहटाएं
  7. नदी और बादल का यह संवाद मनुष्य को उसकी गलतियाँ याद दिलाकर भविष्य का भयानक मंजर आँखों के सामने सजीव कर देता है -
    उसकी चपल चंचला उँगली से
    परमाणु-बटन दब जाए!
    परमाणु बम की असीमित ऊर्जा से
    जल सकते हैं ज़मीं-आसमां,
    विकास के नाम पर मदांध मनुष्य की हरकतों के आगे प्रकृति के तत्त्व बेबस दिखाई पड़ते हैं- कटते पेड़, सूखती नदी, सिकुड़ते तटबंध...
    परंतु जब प्रकृति अपने इन तत्त्वों की बेबसी का बदला निर्दयतापूर्वक मनुष्य से लेती है तब मनुष्य कलियुग और ग्रहों की स्थिति को जिम्मेदार ठहराता है।

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  8. रवींद्र जी बहुत अच्छी रचना हैं...। आप बेहतर समझें तो प्रकृति दर्शन के लिए प्रेषित कर सकते हैं...editorpd17@gmail.com
    अपना संक्षिप्त परिचय और फोटोग्राफ भी भेजियेगा...।

    जवाब देंहटाएं

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