आईना दिखाने वाले
कहाँ ग़ाएब हो गए?
शायद वे
घृणा का गान सुनते-सुनते
लहू का घूँट पीते-पीते
जान की फ़िक्र में पड़ गए...
ऐब तो दूसरे ही बता सकते हैं
इस कथन के भी पाँव उखड़ गए...
हरा-भरा है देश हमारा
फिर मिसरी की डली के लिए
एक मासूम की आँखों में
गहरी उदासी क्यों है?
कहते हो
क़ानून का राज है देश में
तो फिर
हत्यारों, बलात्कारियों;दंगाइयों को
मिल रही शाबाशी क्यों है?
तुम आईना तोड़ भी दो
अपने इंतज़ामों से
हम कदापि न घबराएँगे
वक़्त गर्दन पकड़कर
झुकाएगा एक दिन
तुम्हारा वीभत्स चेहरा
मक्कारियाँ उसकीं
चुल्लूभर पानी में हम दिखाएँगे।
© रवीन्द्र सिंह यादव
जी नमस्ते ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार(१९-०९ -२०२२ ) को 'क़लमकारों! यूँ बुरा न मानें आप तो बस बहाना हैं'(चर्चा अंक -४५५६) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
सशक्त एवं प्रभावी शब्द।
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंसामयिक चिन्तन।
हटाएंआदरणीय सर सादर प्रणाम 🙏
जवाब देंहटाएंआपकी लेखनी तो आज ललकार रही है सर। जब कुर्सियों की शोभा बढ़ाने वाले क़ानून को भी अपनी डमरू की ताल पर नचाने के भ्रम पालने लगें और सत्य को दर्शाते आईने तोड़ वे कपटी लोग यह मानने लगें कि अब उन्हें हरीश्चन्द्र समझा जाएगा और इसके चलते उन्हें कुछ भी मनमानी करने की,जनता को सताने की पूरी आज़ादी है तो उनका यह भ्रम लेखनी की ऐसी ललकार ही तोड़ सकती है। आईने टूट भी जाएँ तो क्या? सत्य अपना मार्ग चुल्लू भर पानी से भी निकाल लेगा।
हाँ,सत्य को यह अफ़सोस अवश्य रहेगा कि उसे धारण करने वाले साहसी योद्धाओं की संख्या अब घट गई है।इसी कारण मिसरी की डली के लिए अभी लंबी प्रतीक्षा करनी होगी।
आपकी साहसी लेखनी और आपको मेरा सादर प्रणाम 🙏
काश! कुछ और लेखनियों में भी यह साहस लौट आए।
आमीन
जवाब देंहटाएंसद्भावरूपी मिसरी की डली ज़्यादा खाने-खिलाने से मधुमेह का रोग हो सकता है इसलिए नफ़रतरूपी करेले का जूस ही पीना-पिलाना चाहिए.
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