तुच्छताओं को
स्थाई स्थान ढूँढ़ना था
तो राजनीति में समा गईं
हताशाओं को
तलाश थी मुकम्मल ठिकाने की
तो कापुरुष में समा गईं
चतुराई चपला-सी चंचल
भविष्य बनाने निकली
तो बाज़ारों की रौनक में बस गई
जीने की चाह
भटकती रही
सन्नाटोंभरे खंडहरों में
लड़खड़ाकर गिरने से पहले
सँभल गई
मानवता पूँजी के अत्याचार झेलते-झेलते
क्षत-विक्षत होकर ख़ुद से आश्वस्त हुई
तो विचार-क्रांति के साथ कोहरे को चीरती चली गई।
© रवीन्द्र सिंह यादव
जी नमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी लिखी रचना आज 2 जनवरी 2021 को साझा की गई है......... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन " पर आप भी सादर आमंत्रित हैं ....धन्यवाद! ,
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल रविवार (03-01-2021) को "हो सबका कल्याण" (चर्चा अंक-3935) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--नववर्ष-2021 की मंगल कामनाओं के साथ-
हार्दिक शुभकामनाएँ।
--
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
--
वाह!लाजवाब सृजन सर।
जवाब देंहटाएंसादर
नववर्ष मंगलमय हो। सुन्दर सृजन।
जवाब देंहटाएंवाकई सराहनीय रचना। मुझे प्रभावित किया।
जवाब देंहटाएंहर पल मंगलकारी हो
जवाब देंहटाएंसुन्दर सृजन
बेहतरीन रचना आदरणीय 🙏
जवाब देंहटाएंनववर्ष की हार्दिक शुभकामनाएं 💐
रवींद्र जी, ये पंक्तियां तो लाजवाब हैं कि --हताशाओं को
जवाब देंहटाएंतलाश थी मुकम्मल ठिकाने की
तो कापुरुष में समा गईं..वाह
सुंदर सृजन!--ब्रजेंद्रनाथ
जवाब देंहटाएंवाह... बहुत खूबसूरत लाजवाब रचना 👏
जवाब देंहटाएंवाह... बहुत खूबसूरत लाजवाब रचना 👏
जवाब देंहटाएंअति सुन्दर ...हार्दिक शुभकामनाएँ ।
जवाब देंहटाएंवाह! अद्भुत
जवाब देंहटाएंहताशा तो हर सर चढ़ी है बेचारी मुकम्मल ठिकाना ढूंढते ढूंढते सभी को निशाने पर ले बैठी है।
शानदार अभिव्यक्ति।
भाई रविन्द्र जी नववर्ष मंगलमय शुभ हो सदा सर्वदा अपको और सकल परिवार जनों को।
मंत्रमुग्ध करती प्रभावशाली लेखन व अभिव्यक्ति।
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