एक सिंदूरी शाम
गुज़र रही थी
थी बड़ी सुहावनी
लगता था
भानु डूब जाएगा
अकूत जलराशि में
चलते-चलते
बालू पर पसरने का
मन हुआ
भुरभुरी बालू पर
दाहिने हाथ की
तर्जनी से
एक नाम लिखा
सिंधु की दहाडतीं
प्रचंड लहरें
अपनी ओर आते देख
तत्परता से लौट आया
अगली भोर फिर गया
सुखद अचरज से देखा
एक घोंघा
वही नाम
बालू पर लिख रहा था...
© रवीन्द्र सिंह यादव
जी नमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी लिखी रचना शुक्रवार १९ जनवरी २०२१ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
एक घोंघा
जवाब देंहटाएंवही नाम
बालू पर लिख रहा था...
क्या बात है!!! भावपूर्ण काव्य चित्र!! +
आदरणीय रवींद्रजी, आपकी प्रखर लेखनी से इतनी सौम्य रचनाओं का सृजन ! प्रकृति से जोड़ती सरल सुंदर रचना।
जवाब देंहटाएंजी नमस्ते ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार(१३-०३-२०२१) को 'क्या भूलूँ - क्या याद करूँ'(चर्चा अंक- ४००४) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
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अनीता सैनी
घोंघे ने कर लिया था
जवाब देंहटाएंआत्मसात वो नाम
जो लिख आये थे रेत पर
अपनी उँगली से ।
अब साहिल पर केवल
वही नाम बिखरा है ।
सुंदर से भाव से सजाई रचना ।
वाह! बहुत सुंदर ,खिंचते हुए उसी बिंदू पर जाना और मन माफ़िक दिख जाना बहुत सुंदर ।
जवाब देंहटाएंअप्रतिम।