बुधवार, 12 जुलाई 2017

ख़ालीपन से दूर .....


     उठो चलो

     जी चुके बहुत

     सहारों में,

     ढूँढ़ो  न आसरा

     धूर्तों-मक्कारों में ।


      सुख के पलछिन

      देर-सवेर

      आते तो हैं,

      पर ठहरते नहीं

      कभी  बहारों में ।


 मतवाली हवाओं

     का आना-जाना

     ब-दस्तूर जारी है,

     ग़ौर  से देखो

     छाई है धुँध  

     दिलकश नज़ारों में।


     फ़ज़ाओं की

    बे-सबब  बे-रुख़ी से

     ऊब गया है मन,

     फुसफुसाए जज़्बात

     दिल की

     दीवारों में।


     रोने से

     अब  तक  भला 

     किसे क्या मिला?

     मिलता है

     जीभर सुकून 

     वक़्त के मारों में।


     हवाएँ  ख़िलाफ़

     चलती हैं

     तो चलने दे,

     जुनून लफ़्ज़ों से

     खेलने का

     पैदा कर 

क़लमकारों  में।


    मझधार की

    उछलती  लहरें

    बुला रही हैं,

    कब  तक

    सिमटे  हुए 

    बैठे रहोगे  

बस किनारों में ।


     परिंदे भी

    चहकते ख़्वाब

    सजाते रहते हैं,

    उड़ते हैं

    कभी तन्हा

    कभी क़तारों में।

    © रवीन्द्र सिंह यादव

5 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (22-07-2020) को     "सावन का उपहार"   (चर्चा अंक-3770)     पर भी होगी। 
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।  
    सादर...! 
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'  
    --

    जवाब देंहटाएं
  2. वाह! बहुत सुंदर सृजन
    अर्थपूर्ण असरार
    सभी गहन भाव लिए।

    जवाब देंहटाएं
  3. मझधार की
    उछलती लहरें
    बुला रही हैं,
    कब तक
    सिमटे हुए
    बैठे रहोगे
    बस किनारों में ।..वाह! सराहनीय सृजन।
    लाजवाब अभिव्यक्ति ।
    सादर

    जवाब देंहटाएं

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