मंगलवार, 5 मई 2020

काला टीका,माँ और संयोग / लघुकथा

            प्रभात अच्छे अंकों से पाँचवीं कक्षा में उत्तीर्ण हुआ। माँ अँग्रेज़ी माध्यम के निजी विद्यालय में आगे की पढ़ाई पर ज़ोर डालते हुए बोली-
"अब मेरा बिटवा और अधिक मन लगाकर पढ़ेगा। पढ़-लिखकर गुरूजी बनेगा।"
"लेकिन अँग्रेज़ी माध्यम के विद्यालय का शुल्क वहन करने की हमारी क्षमता नहीं है। अभी तो नगर पालिका के पुराने विद्यालय में ही पढ़ने दो, दीनानाथ जी मेरे मित्र हैं तो प्रवेश आसानी से मिल जाएगा और छात्रवृत्ति भी।"
कृष्णपाल ने कांता को समझाया। 

            प्रभात पीठ पर भारी बस्ता लादे हड़बड़ी में दौड़ जाता है। माँ द्वारे से पुकारती हुई रुकने को कहती हुई उसके पीछे-पीछे सरपट चली आती है। 
"यह काला टीका कुदृष्टि से बचाता है, कुछ  पल और रुक जाता तो क्या होता? आज बिना टीका लगवाए ही भाग पड़ा।" 
कांता ने पीठ पर हौले से धौल जमाते हुए संतोष के स्वर में कहा। 

          "जाओ वहाँ मुर्गा बन जाओ! तुम तो कभी देर से नहीं आते थे आज समय से तीन मिनट पीछे..."
अध्यापक जी ने झल्लाते हुए लगातार बरसात से गीले हुए मैदान की ओर इशारा किया। 

           मुर्गा बने हुए सात-आठ मिनट बीत गए। प्रभात की पिड़लिओं,ग्रीवा और रीढ़ की हड्डी में दर्द उभर आया। तभी सन्नाटे को तोड़ता तीव्र धमाका हुआ। प्रभात चौंककर खड़ा होकर देखता है, उसकी कक्षा के जर्जर कमरे की छत,दीवारें सब धड़ाम! माहौल चीख़-पुकार,चीत्कार से डरावना हो गया। सहायता के लिए वह भी मलवे की ओर दौड़ पड़ा। 

© रवीन्द्र सिंह यादव      

7 टिप्‍पणियां:

  1. ओह्ह्ह ..मार्मिक,विचारोत्तेजक लघुकथा।
    सरकारी स्कूलों की दयनीय व्यवस्था पर बेहद गंभीर प्रश्न उठाती यह लघुकथा सचमुच विचारणीय है।
    माँ के द्वारा नज़र का टीका तो हर बच्चे के लिए हैं परंतु हर कोई प्रभात की तरह खुशनसीब नहीं।
    आपकी लिगी पहली लघुकथा के लिए मेरी शुभकामनाएँ स्वीकार करें रवींद्र जी।
    बधाई सार्थक लेखन ।

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  2. आदरणीया/आदरणीय आपके द्वारा 'सृजित' रचना ''लोकतंत्र'' संवाद मंच पर( 'लोकतंत्र संवाद' मंच साहित्यिक पुस्तक-पुरस्कार योजना भाग-३ हेतु नामित की गयी है। )

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    आवश्यक सूचना : रचनाएं लिंक करने का उद्देश्य रचनाकार की मौलिकता का हनन करना कदापि नहीं हैं बल्कि उसके ब्लॉग तक साहित्य प्रेमियों को निर्बाध पहुँचाना है ताकि उक्त लेखक और उसकी रचनाधर्मिता से पाठक स्वयं परिचित हो सके, यही हमारा प्रयास है। यह कोई व्यवसायिक कार्य नहीं है बल्कि साहित्य के प्रति हमारा समर्पण है। सादर 'एकलव्य'

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  3. बहुत बढ़िया लघुकथा... माँ का टीका और स्कूल की जर्जर अवस्था का अकल्पनीय संयोग... खूब...👌

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  4. आदरणीय रवींद्र जी प्रणाम, आपकी लघुकथा पढ़ी।  अत्यंत तार्किक और हमारे समक्ष ज्वलंत प्रश्नों की गठरी रखते हुए हमारे मन में कई तर्कपूर्ण विचार एकसाथ उत्पन्न करती है!  सत्य कहूँ तो आज आप जैसे लघुकथाकारों की अत्यंत आवश्यकता है जो हिंदी साहित्य के साथ-साथ समाज के उत्थान की बात करता हो जिसकी अपनी ज़मीन हो और आसमान भी अपना न कि पोंगा साहित्यकारों के द्वारा दिए गए नामों में अपना अस्तित्व तलाशे! आपसे अनुरोध है कि इस अनोखी विधा में अपना क़दम बढ़ाइए बिना किसी पोंगा गुरुदेव के चरणों में लेटकर!      

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  5. वाह!!अनुज रविन्द्र जी ,बहुत खूबसूरत लघुकथा ।
    सरकारी शालाओं की जर्जर अवस्था और साथ में माँ का टीका ...। प्रभात तो बच गया ..माँ के आशीर्वाद से ,पर कितने ही मासूम हमारी इस चरमराती व्यवस्था के कारण अकाल ही विदा ले लेते है .।

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  6. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

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  7. अरे वाह! आपकी प्रथम लघुकथा!
    आदरणीय सर सादर प्रणाम 🙏
    बहुत खूब लिखा आपने सर। आपकी कविताओं की भाँति आपकी यह लघुकथा भी व्यवस्थाओं पर प्रश्न उठाते हुए उन किरदारों को लेकर आयी जो काल्पनिक नही अपितु हमारे ईर्द-गिर्द ही घूम रहे हैं। इन कथाओं का आज आप जैसे कलमकारों की कलम द्वारा पन्नों पर उतर जाना वास्तव में आवश्यक भी और साहित्य और समय की आज माँग भी है। आपको हार्दिक बधाई और ढेरों शुभकामनाएँ और आपकी कलम को कोटिशः नमन 🙏

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