ज्ञात नहीं
अब कहाँ हो तुम
मैं आज भी हूँ
उसी स्मृति में गुम
जब तुम्हें सी ऑफ़ करने
तीन मई नवासी
इकत्तीस साल पूर्व
रेलवे स्टेशन पर
प्लेटफ़ॉर्म चार पर
उस ट्रैन में बैठाया था
जो ले गयी तुम्हें
मुझसे बहुत दूर
वह बिजली से चलनेवाली ट्रैन
लगी थी बड़ी क्रूर
बस तुम्हारी झुकीं पलकें
जादुई मुस्कुराहट
मड़राती रहती है
आज भी मेरे आसपास दिन-रैन
ट्रैन की खिड़की से
निहारता मासूम मुखड़ा ले
तीव्र गति से ओझल हो गई थी
तुम्हें मुझसे सुदूर ले जाती
वह लाल रंग की ट्रैन!
जो आज भी सरसराती हुई
चल रही है मेरे ज़ेहन में
यादों की ट्रैन दौड़ रही है
नॉस्टाल्जिआ की पटरियों पर
बेधड़क धड़धड़ाती हुई
शुक्र है कि वह बुलेट ट्रैन नहीं थी।
© रवीन्द्र सिंह यादव
अब कहाँ हो तुम
मैं आज भी हूँ
उसी स्मृति में गुम
जब तुम्हें सी ऑफ़ करने
तीन मई नवासी
इकत्तीस साल पूर्व
रेलवे स्टेशन पर
प्लेटफ़ॉर्म चार पर
उस ट्रैन में बैठाया था
जो ले गयी तुम्हें
मुझसे बहुत दूर
वह बिजली से चलनेवाली ट्रैन
लगी थी बड़ी क्रूर
बस तुम्हारी झुकीं पलकें
जादुई मुस्कुराहट
मड़राती रहती है
आज भी मेरे आसपास दिन-रैन
ट्रैन की खिड़की से
निहारता मासूम मुखड़ा ले
तीव्र गति से ओझल हो गई थी
तुम्हें मुझसे सुदूर ले जाती
वह लाल रंग की ट्रैन!
जो आज भी सरसराती हुई
चल रही है मेरे ज़ेहन में
यादों की ट्रैन दौड़ रही है
नॉस्टाल्जिआ की पटरियों पर
बेधड़क धड़धड़ाती हुई
शुक्र है कि वह बुलेट ट्रैन नहीं थी।
© रवीन्द्र सिंह यादव
आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज रविवार 03 मई 2020 को साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंवाह
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