शनिवार, 2 मई 2020

अपने चेहरे पर मुखौटा क्यों भला?

रेल-पटरी के ऊपर 

वर्षों पहले बने 

जर्जर ज़ंग लगे लोहे के पुल से 

गुज़रते हुए

चिंतनीय सवाल 

मुनिया ने बापू से पूछा-

"एक दिन 

यह पुल गिर जाएगा 

न जाने 

दिन का होगा कौनसा पहर 

चुपचाप अकेला गिरेगा 

या बरपाएगा 

गुज़रते लोगों पर क़हर?

फिर किसी की लापरवाही 

तय करने के लिए 

आयोग बनेगा

दोष तय करने का 

कब योग बनेगा?" 

बापू ने कहा-

"ख़ाली दिमाग़ शैतान की दुकान!

यह नहीं कोई विचार महान

कुछ और सोचो

तुम्हें बड़ा आदमी बनना है।"

"बड़ा आदमी नहीं!

संपूर्ण औरत!

अपने चेहरे पर 

मुखौटा क्यों भला?"

मुनिया चिहुँक पड़ी

मुनिया की समझदारी पर 

बापू की आँखें फटीं रह गयीं। 

© रवीन्द्र सिंह यादव

7 टिप्‍पणियां:

  1. वाह! अनुज रविन्द्र जी ,क्या बात कही है आपनें! ,ऱंग-रोगन कर असलियत को ढांपने की कोशिश यहाँ अक्सर की जाती है ..इन मुखौटों के चलते अक्सर हो जाया करते हैं कुछ हादसे ..।

    जवाब देंहटाएं
  2. जी नमस्ते,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा रविवार(०३-०५-२०२०) को शब्द-सृजन-१९ 'मुखौटा'(चर्चा अंक-३६९०) पर भी होगी।

    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    आप भी सादर आमंत्रित है
    ….
    अनीता सैनी

    जवाब देंहटाएं
  3. वाह!
    आदरणीय सर सादर प्रणाम 🙏
    बहुत खूब लिखा आपने सर। इन मुखौटों के पीछे का सत्य बड़ा भयानक साबित हो सकता है उसके बाद बस दोष लगाने और आयोग बनाने के अलावा और कुछ ना होगा।

    जवाब देंहटाएं
  4. सुंदर अभिव्यक्ति ,सादर नमन आपको

    जवाब देंहटाएं
  5. गजब!!
    कम शब्दों में कितना कुछ कहता सृजन ।
    वाह्ह्ह

    जवाब देंहटाएं

आपकी टिप्पणी का स्वागत है.

विशिष्ट पोस्ट

फूल और काँटा

चित्र साभार: सुकांत कुमार  SSJJ एक हरी डाल पर  फूल और काँटा  करते रहे बसर फूल खिला, इतराया  अपने अनुपम सौंदर्य पर  काँटा भी नुकीला हुआ, सख़्त...