क्या सोचते हो आज
विवेकहीनता से अभिशप्त
कोविड-19-काल का कलेवर कैसा है?
कुछ भयावह कल्पनाओं से इतर
मरुस्थल में फूल खिलने जैसा है!
वो जो चमन में बिखरीं हैं फ़ज़ाएँ
फूलों को स्पर्श करतीं हैं अल्हड़ हवाएँ
तुम्हारे सिवाय
सब रसरंग में आप्लावित हैं
अच्छा लगा जब तुमने
टहनी पर खिला
मासूम प्रफुल्लित फूल
नहीं तोड़ा बेदर्दी से
बस वहीं से
समर्पित कर दिया है
ईष्ट के चरणों में
इस रचनात्मकता से
प्रकृति, फूल, ईष्ट और मन
संतोष की ठंडी आह नहीं भरते
भविष्य की तस्वीर के विचार पर
ललाट पर बल नहीं उभरते
वे परिवर्तनगामी समय की
शाश्वत शक्ति का वैभव
स्वीकारने की
मानस-चित्रावली पर
मंथन चरितार्थ कर रहे हैं
अब अपने अस्तित्त्व के सवाल से
नहीं डर रहे हैं
इस ऊहापोह के घमासान के बीच
कान में एक अपरिचित ध्वनि
हौले से फुसफुसाती है
सघन वन में महकते मतवाले महुए की गंध
कब तोड़ती है नासिका से नैसर्गिक अनुबंध!
©रवीन्द्र सिंह यादव
कब तोड़ती है नासिका से नैसर्गिक अनुबंध!
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बेहद खूबसूरत पंक्तियाँ।
भावपूर्ण,शीतल फुहार-सी सुंदर अभिव्यक्ति।
आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" में बुधवार 13 मई 2020 को साझा की गयी है......... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंप्रकृति अपनी नैसर्गिक स्वभाव का कभी त्याग नहीं करती लेकिन एक इंसान है जो अपना स्वभाव पल पल बदलने से भी पीछे नहीं रहता
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी प्रस्तुति
अद्धभुत लेखन
जवाब देंहटाएंसाधुवाद