एक शायरा जो हसीन थी, ज़हीन थी; टीवी पर ग़ज़ल कह
रही थी। अपनी चमकीली काली ज़ुल्फ़ों को उसने क़रीने से वाम-
पक्ष में आगे फैलाया था। घनी केश-राशि बाईं आँख का कुछ
हिस्सा बार-बार ढक रही थी। कभी दाएँ, कभी बाएँ हाथ से लटों
को कान तक खिसकाती-धकयाती थी एक मिनट में पाँच-छह बार।
अगस्त 2004 के इतवार की वह उमसभरी शाम असह हो
रही थी। कूलर की हवा भी बदन में चुभ रही थी। बाहर घिरी काली
घटाएँ
बरसने के लिए उमड़ रहीं थीं। वातावरण ख़ुशनुमा होने की
आशाएँ अपने सफ़र पर थीं।
मुनिया अपनी तीसरी कक्षा की नई किताबें अख़बार के साथ
कवर चढ़ाने के लिए देने आई। मेरे पीछे चुपचाप खड़ी रहकर टीवी
देखती रही। एक मिनट बाद बोली-
"बाल बाँधतीं क्यों नहीं ये मैडम?
मुझे एक शरारत सूझ रही है,
टीवी में घुसकर इनके बाल बाँध दूँ!"
सहसा मेरा ध्यान उसकी बातों पर गया,
मैंने उसे समझाते हुए कहा-
"ये अदाएँ हैं।
शब्दों पर ध्यान दो।"
©रवीन्द्र सिंह यादव
अदायें जरूरी है शब्दों से ध्यान हटाने के लिये। बहुत खूब।
जवाब देंहटाएंक्या बात है. बहुत खूब.
जवाब देंहटाएंरवीन्द्र जी
जवाब देंहटाएंमुझे एक शरारत सूझ रही है, टीवी में घुसकर इनके बाल बाँध दूँ :D :P
ये अदाएँ हैं। शब्दों पर ध्यान दो
जाने आप क्या कहना चाहते हैं
..ki shabd ki trad dhyaan do adaaon ki traf nhi kyunki shabd aur bhi achche hain
yaa
adaayen shabdon se dhyaan haatne ko hai
मुझे ऐसी रचनाये बेहद आकर्षक लगती हैं जो पढ़ने वाले को अपने साथ बाँध कर सोचने पर मज़बूर कर दें
अच्छा लेख
कोविड -१९ के इस समय में अपने और अपने परिवार जनो का ख्याल रखें। .स्वस्थ रहे।
सादर नमस्कार,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा शुक्रवार (22-05-2020) को
"धीरे-धीरे हो रहा, जन-जीवन सामान्य।" (चर्चा अंक-3709) पर भी होगी। आप भी
सादर आमंत्रित है ।
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"मीना भारद्वाज"
अदाएं भी शायद कई मिश्रित शब्दों का एक प्रतीकात्मक छायांकन हो । बहुत सुंदर लघु लेख ।
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